29.2 C
Jaipur
Sunday, July 20, 2025

कोविड जैसी महामारी से निपटने के लिए ‘स्टरलाइज’ जीवन शैली को त्यागें,प्रकृति से जुड़ें:वैज्ञानिक

Newsकोविड जैसी महामारी से निपटने के लिए ‘स्टरलाइज’ जीवन शैली को त्यागें,प्रकृति से जुड़ें:वैज्ञानिक

(राजेश अभय)

नयी दिल्ली, 20 जुलाई (भाषा) आज की ‘स्टरलाइज’ और ‘अत्यधिक स्वच्छ’ जीवनशैली को त्यागकर और मिट्टी, नदियों, ताजी हवा जैसे प्राकृतिक तत्वों से पुनः जुड़कर लोगों की प्रतिरक्षा प्रणाली को मजबूत किया जा सकता है और उन्हें भविष्य में कोविड-19 जैसी महामारियों का सामना करने के लिए बेहतर ढंग से तैयार किया जा सकता है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. अजय कुमार सोनकर ने यह बात कही।

‘स्टरलाइज’ जीवन शैली से आशय कृत्रिम और रसायन जनित स्वच्छता के आवरण में रहने से है।

‘पीटीआई-भाषा’ के साथ एक विशेष बातचीत में सोनकर ने मानव शरीर की तुलना एक मोबाइल फोन से करते हुए कहा, ‘‘प्रकृति के संपर्क में आने से मानव शरीर को बैक्टीरिया और उनके विकसित होते स्वरूपों के बारे में जानकारी मिलती है, ठीक उसी तरह जैसे एक मोबाइल फोन को ठीक से काम करने के लिए नियमित सॉफ्टवेयर अपडेट की ज़रूरत होती है।’’ सोनकर ने इसके पहले अत्याधुनिक टिशू कल्चर के जरिए मोती बनाने की तकनीक विकसित करके दुनिया को चौंका दिया था।

पद्मश्री डॉ. अजय कुमार सोनकर ने कहा कि कोविड-19 या भविष्य में उस जैसी कोई भी महामारी सिर्फ जीवाणुओं और विषाणुओं की वजह से नहीं आएगी, बल्कि हमारी ही जैविक भूल का परिणाम होगी। उन्होंने कहा कि ऐसे किसी दु:स्वप्न से निपटने के लिए हमें फिर से प्रकृति से जुड़ना होगा। यह जानकारी दी है।

देश-विदेश में माइक्रोबायोलॉजी और जल-जैविकी पर वर्षों तक गहन शोध करने वाले डॉ. सोनकर ने महामारी के पीछे छिपे उस रहस्य से पर्दा उठाया है, जिसे अब तक आधुनिक विज्ञान ने अनदेखा किया था।

सोनकर ने कहा, ‘‘आधुनिक मानव ने खुद की जीवन शैली को इतना ‘स्टरलाइज’ कर लिया है कि अब उसकी शारीरिक प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) पर्यावरणीय रोगाणुजनकों को पहचान ही नहीं पाती।’’

उन्होंने बताया कि जब तक इंसान मिट्टी, नदियों और प्राकृतिक हवा के संपर्क में था, तब तक उसका ‘इम्यून सिस्टम’ जीवाणुओं और उसके विकासमान स्वरूपों (माइक्रोबियल अपडेट) की जानकारियां लेता रहता था – ठीक वैसे ही जैसे किसी मोबाइल फोन में नियमित सॉफ्टवेयर अपडेट आता है।

डॉ. सोनकर ने कहा कि आज की ‘हाइपर-क्लीन’ (अतिस्वच्छता बरतने की) संस्कृति ने हमें इस प्राकृतिक सुरक्षा कवच से दूर कर दिया है।

उन्होंने कहा, ‘‘हमने न केवल अपने घरों को ‘स्टरलाइज’ किया, बल्कि अपने शरीर को भी रोगों से बचाने वाले सूक्ष्मजीवों से अलग कर दिया।’’

अपने शोध के दौरान अपने एक विशेष चौंकाने वाले तथ्य का खुलासा करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘गंगा एक जीवित ‘माइक्रोबियल नेटवर्क’ है।’’

अपने वर्षों के अनुसंधान का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि गंगा नदी एक सक्रिय ‘माइक्रोबियल नेटवर्क’ है। उन्होंने कहा कि जब लोग नदी में प्रवेश करते हैं, उनके शरीर के सूक्ष्म जीवों के डेटा का लेखा-जोखा गंगा अपनी स्मृति में ना सिर्फ सहेज लेती है बल्कि संतुलन बनाये रखने के लिए रक्षा प्रदान करने वाले बैक्टेरियोफेज के रूप में प्रतिक्रिया भी देती है। बैक्टीरियोफेज एक विषाणु है जो हानिकारक बैक्टीरिया को नष्ट करता है।

उन्होंने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा कि जब लोग नदी में स्नान करते हैं, तो वे अपने शरीर के सूक्ष्मजीवों की स्थिति से गंगा को परिचित कराते हैं और बदले में गंगा ‘बैक्टीरियोफेज’ के द्वारा रोगाणुओं को नष्ट करके उनकी रक्षा करती है।

गंगा के ‘माइक्रोबायोम’ और ‘बैक्टीरियोफेज’ के क्षेत्र के दुनिया के अग्रणी वैज्ञानिकों में से एक माने जाने वाले डॉ. सोनकर ने कहा, ‘‘गंगा का यह गुण मानव शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली (इम्यून सिस्टम) को प्राकृतिक प्रशिक्षण देता है। यही वजह है कि इसके संपर्क में आने वाले लोग, नई बीमारियों के प्रति अधिक प्रतिरोधक होते हैं।’’

कोविड-19 का कहर साफ-सुथरे समाजों या विकसित माने जाने वाले देशों पर क्यों टूटा? इस सवाल पर डॉ. सोनकर का उत्तर चौंकाने वाला था।

भारत और विदेशों में सूक्ष्म जीव विज्ञान और जलीय पारिस्थितिक तंत्र पर दशकों से शोधरत सोनकर ने कहा, ‘‘यूरोप और अमेरिका जैसे समाज दशकों से ‘माइक्रोबियल एम्नेशिया’ (जीवाणु विस्मृति) के शिकार हैं।

उन्होंने कहा, ‘‘वहां के लोग इतने स्वच्छ और ‘स्टरलाइज’ माहौल में रहते हैं कि उनकी प्रतिरक्षा प्रणाली में नया ‘डेटा’ नहीं पहुंचता। यानी वह जीवाणुओं/विषाणुओं के बदलते स्वरूपों के संपर्क से कट जाते हैं। नतीजा यह होता है कि जैसे ही कोई नया वायरस आता है, शरीर उसे पहचानने में देरी कर देता है – और मौत की दर बढ़ जाती है।’’

कोविड-19 के प्रकोप से सहमी दुनिया के समक्ष उत्पन्न होने वाली अन्य किसी महामारी का सामना करने के समाधान या आगे की राह के बारे में पूछने पर डॉ. सोनकर का जवाब बेहद स्पष्ट था।

उन्होंने कहा, ‘‘हमें फिर से प्रकृति से जुड़ना होगा। गंगा को केवल पवित्र नदी ही नहीं, एक शिक्षिका की तरह देखना होगा। मिट्टी, नदियों और हवा के जैविक तंत्र को फिर से सक्रिय करना ही महामारी रोकने की असली रणनीति हो सकती है। हमें विकास योजनाओं में प्रकृति से संपर्क के महत्व को स्थान देना होगा।’’

उन्होंने कहा, ‘‘टीकाकरण केवल एक अपर्याप्त प्रतिक्रिया है। निरंतर बदलते जलवायु संबंधी परिवेश में टीकाकरण प्राकृतिक ‘माइक्रोबियल इंटेलिजेंस’ का स्थान कभी नहीं ले सकता। जीवाणुओं और उसके नये स्वरूपों से लड़ने की प्राकृतिक क्षमता के साथ जीना ही किसी महामारी का असली समाधान हो सकता है।’’

उन्होंने कहा कि गंगा याद रखती है, लेकिन अब समय आ गया है कि हम भी उसे याद रखें। डॉ. सोनकर ने कहा, ‘‘हमारा अस्तित्व जैविक है, प्रकृति से अलग होकर हम जीवित नहीं रह सकते। गंगा आज भी हमारी जैविक जानकारियों को सहेजे हुए है। सवाल यह है कि क्या हम उसे फिर से पढ़ना चाहेंगे?

भाषा राजेश नेत्रपाल संतोष

संतोष

Check out our other content

Check out other tags:

Most Popular Articles