(उज्मी अतहर)
बुलंदशहर/अलीगढ़, 20 जुलाई (भाषा)उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले में चिलचिलाती गर्मी में 12 वर्षीय रजनी अपनी छोटी बहन को गोद में लिए हुए झोपड़ी के बाहर काले पड़ चुके एल्युमीनियम के बर्तन में दाल उबाल रही है।
जैसे ही पतली दाल तैयार होने लगती है, वह बर्तन में और पानी डाल देती है ताकि भोजन को थोड़ा और पकाया जा सके। पानी न डालने पर उसके आठ सदस्यों वाले परिवार के लिए दाल पर्याप्त नहीं होती।
जब रजनी से पूछा गया कि इसका स्वाद कैसा है, तो उन्होंने रक्षात्मक लहजे में जवाब दिया, ‘यह बुरा नहीं है… यह बिना खाए रहने से तो बेहतर है।’
वह कहती हैं कि फल दुर्लभ होते हैं – आमतौर पर ये तभी मिलते हैं जब कोई स्थानीय किसान बचे हुए पके फलों को फेंक देता है।
रजनी ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘इस साल मैंने बहुत सारे आम खाए।’
रजनी का इशारा पेडों से गिरने वाले पके आमों की ओर था, जिन्हें टपका कहा जाता है। रजनी और उसके दोस्तों को इन आमों को इकट्ठा करने की अनुमति दी गई है।
रजनी का परिवार उन हजारों प्रवासी परिवारों में से एक है जो हर साल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के विशाल ईंट भट्टों में काम करने के लिए आते हैं।
इन भट्टों से कुछ कमाई तो हो जाती है, लेकिन इसके वास्तविक परिणाम रजनी जैसे बच्चों को उठाने पड़ते हैं, जो शिक्षा, पर्याप्त भोजन या स्वास्थ्य देखभाल के बिना बड़े होते हैं और पीढ़ी दर पीढ़ी गरीबी व अदृश्य श्रम चक्र में फंस जाते हैं।
साल 2021 में, सरकार द्वारा संसद में प्रस्तुत आंकड़ों से पता चला कि पंजीकृत ईंट भट्टों में 1.74 करोड़ श्रमिक काम करते हैं, जबकि स्वतंत्र शोध से पता चला है कि इनमें 20 प्रतिशत बाल श्रमिक होते हैं। ‘जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रन’ के संस्थापक व बाल अधिकार कार्यकर्ता भुवन रिभु ने कहा, ‘इसलिए, मोटे तौर पर यह माना जा सकता है कि लगभग 35 लाख बच्चे ईंट भट्टों में काम कर रहे हैं, और अवैध भट्टों में यह संख्या संभवतः अधिक है।’
अधिकतर परिवारों की आवाजाही, भट्टी के मौसम के हिसाब से, साल में आठ से नौ महीने तक चलती है। स्थायी पते और स्थानीय दस्तावेजों के अभाव में, बच्चों को अक्सर बुनियादी अधिकारों से भी वंचित होना पड़ता है।
उदाहरण के लिए, दस साल का नीरज दिन भर सूखी मिट्टी के ढेले लकड़ी के बर्तन पर ढोता है।
नीरज ने कहा, ‘मैं स्कूल नहीं जा सकता क्योंकि मेरे पिता कहते हैं कि हम सब एक साथ यहां आए हैं और सभी को काम करना होगा। अगर मुझे स्कूल जाने का मौका मिले, तो मैं खूब पढ़ाई करूंगा और अफसर बनूंगा।’
नीरज की मां कहती हैं, ‘बच्चों समेत हम सभी की इस उद्योग में एक भूमिका है।’ बच्चों को आमतौर पर तथाकथित ‘हल्के काम’ दिए जाते हैं, जैसे पानी लाना, ईंटें गढ़ने में मदद करना, या अधपकी मिट्टी ढोना, लेकिन उनके कमजोर, कुपोषित शरीर में कष्ट साफ दिखाई देता है।
एक ईंट भट्ठा मजदूर सुरेश ने बताया, ‘एक मजदूर की कमाई में से लगभग 25 पैसे एजेंट के पास जाते हैं और ईंट भट्ठा मालिक एजेंटों के सीधे संपर्क में होते हैं, इसलिए हमें कमाई का केवल 75 प्रतिशत ही मिलता है, जो एक परिवार के लिए प्रतिदिन लगभग 400 रुपये है।’
मजदूर अधिकार मंच के महासचिव रमेश श्रीवास्तव ने विस्तार से बात करते हुए कहा कि यह व्यवस्था प्रवासी श्रमिकों और उनके बच्चों की कमजोरी का फायदा उठाने तथा उन्हें कर्ज में डूबा रखने के लिए बनाई गई है।
उन्होंने कहा, ‘भट्ठा मालिकों के लिए स्थानीय मजदूर खतरा हैं क्योंकि वे शोषण का विरोध कर सकते हैं क्योंकि उनका समुदाय यहीं रहता है। हालांकि, प्रवासी मजदूरों के मामले में ऐसा नहीं है, इसलिए भट्ठा मालिक उन्हें सिर्फ इसलिए काम पर रखते हैं क्योंकि वे कमजोर होते हैं और शोषण का विरोध करने की संभावना कम होती है। इसके अलावा, चूंकि प्रवासी मजदूरों के बच्चे स्थानीय लोगों की तरह स्कूल नहीं जाते, इसलिए भट्ठा मालिकों को अतिरिक्त मजदूर मिल जाते हैं।’
अलीगढ़ और बुलंदशहर के भट्ठा स्थलों पर पीटीआई ने जिन 20 बच्चों से बात की, उनमें से कोई भी फिलहाल स्कूल नहीं जाता।
केवल दो ही कभी स्कूल गए थे, और वह भी बहुत कम समय के लिए, क्योंकि उनके माता-पिता पलायन करने लगे थे। चौदह साल के नरेश ने कहा, ‘जब हमारे माता-पिता हमारे गांव में काम ढूंढते थे, तब मैं और मेरी बहन पांचवीं कक्षा तक पढ़े थे। यह 2018 की बात है।’
शिक्षा का अधिकार अधिनियम के तहत 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों के लिए शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य होने के बावजूद, प्रवासी बच्चे इससे वंचित हैं।
सरकार ने ‘पोषण ट्रैकर’ के माध्यम से इस अंतर को पाटने की कोशिश की है। इसके माध्यम से आंगनवाड़ियों को प्रवासी परिवारों से जोड़ा गया है, लेकिन इसका क्रियान्वयन अब भी अधूरा है।
जब ‘पीटीआई-भाषा’ ने ईंट भट्ठा मालिकों से संपर्क किया, तो उन्होंने बच्चों को काम पर रखने से इनकार करते हुए कहा कि बच्चे सिर्फ अपने परिवारों के साथ आते हैं।
एक भट्ठा मालिक ने कहा, ‘यह माता-पिता पर निर्भर है कि वे अपने बच्चों को स्कूल भेजें या उन्हें यहीं रखें… हम इसमें कैसे दखल दे सकते हैं?’ हालांकि, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इसे व्यवस्थित शोषण का बहाना बताया।
बंधुआ मजदूरी उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय अभियान समिति के संयोजक निर्मल गोराना ने कहा, ‘माता-पिता के साथ बच्चों का काम करना आम बात है। यह गुपचुप श्रम है और यह उनके अधिकारों का उल्लंघन करता है।’
भाषा जोहेब रंजन
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