(आसिम कमाल)
नयी दिल्ली, 20 जुलाई (भाषा) यह एक सर्वविदित तथ्य है कि लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व हमेशा से कम रहा है। लेकिन मुस्लिम महिला सदस्यों की संख्या बहुत कम रही है और आजादी के बाद से केवल 18 मुस्लिम महिलाएं ही संसद के निचले सदन में पहुंच सकी हैं। एक नयी पुस्तक में इस बात का खुलासा हुआ है।
यद्यपि वंशवादी राजनीति लोकतंत्र की जड़ें गहरी करने में सहायक नहीं हो सकतीं, फिर भी इसने मुस्लिम महिलाओं को अवसर प्रदान करने में सकारात्मक भूमिका निभाई है। आजादी के बाद से लोकसभा में पहुंचने वाली 18 में से 13 महिलाएं राजनीतिक परिवारों से हैं।
राजपरिवार से लेकर चाय विक्रेता से राजनेता बने व्यक्ति की पत्नी और प्रथम महिला से लेकर बंगाली अभिनेत्री तक, लोकसभा में कदम रखने वाली 18 मुस्लिम महिलाएं विविधताओं का मिश्रण हैं। इन महिलाओं में से प्रत्येक महिला की अपनी एक दिलचस्प पृष्ठभूमि रही है, लेकिन एक बात सभी महिलाओं में समान थी – सत्ता तक पहुंचने का उनका रास्ता हमेशा संघर्ष और बाधाओं से भरा रहा था।
इन 18 मुस्लिम महिलाओं की कहानी एक पुस्तक – ‘मिसिंग फ्रॉम द हाउस – मुस्लिम वीमेन इन द लोकसभा’ में लिखी गई है। यह पुस्तक वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई और अंबर कुमार घोष ने लिखी है।
किदवई कहते हैं कि वह निचले सदन में पहुंचने वाली 20 मुस्लिम महिलाओं का विवरण अपनी पुस्तक में दर्ज करना चाहते थे, लेकिन उनमें से दो महिलाएं – सुभासिनी अली और आफरीन अली – ने स्पष्ट तौर पर दावा किया था कि वे इस्लाम का पालन नहीं करती हैं।
किदवई और घोष ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि देश में 1951-52 में हुए पहले संसदीय चुनावों के बाद से केवल अठारह मुस्लिम महिलाएं ही लोकसभा में पहुंच पाई हैं। उनका कहना है कि यह एक चौंकाने वाला और निराशाजनक आंकड़ा है, क्योंकि भारत की 146 करोड़ की आबादी में मुस्लिम महिलाओं की संख्या लगभग 7.1 प्रतिशत है। इस पुस्तक के मुताबिक, 2025 तक गठित 18 लोकसभाओं में से पांच बार ऐसा हुआ है, जब लोकसभा में एक भी मुस्लिम महिला सदस्य नहीं चुनी गईं।
इस पुस्तक का प्रकाशन जगरनॉट द्वारा किया गया है और अगले महीने इसका विमोचन किया जाएगा।
पुस्तक में बताया गया है कि समान रूप से चौंकाने वाला तथ्य यह है कि 543 सीट वाले संसद के निचले सदन में एक कार्यकाल में संसद के लिए निर्वाचित मुस्लिम महिलाओं की संख्या कभी भी चार के आंकड़े को पार नहीं कर पाई।
पुस्तक में यह भी उल्लेख किया गया है कि पांच दक्षिणी राज्यों – केरल, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना – में से किसी ने भी अभी तक लोकसभा में एक भी मुस्लिम महिला सांसद को नहीं भेजा है। इन दक्षिणी राज्यों को उत्तर की तुलना में बेहतर राजनीतिक प्रतिनिधित्व और बेहतर साहित्यिक स्तर तथा अन्य सामाजिक-आर्थिक संकेतकों के लिए जाना जाता है।
लोकसभा में पहुंचने वाली 18 मुस्लिम महिलाओं में मोफिदा अहमद (1957, कांग्रेस); जोहराबेन अकबरभाई चावड़ा (कांग्रेस, 1962-67); मैमूना सुल्तान (कांग्रेस, 1957-67); बेगम अकबर जहां अब्दुल्ला (नेशनल कॉन्फ्रेंस, 1977-79, 1984-89), रशीदा हक (कांग्रेस 1977-79); मोहसिना किदवई (कांग्रेस, 1977-89); आबिदा अहमद (कांग्रेस, 1981-89); नूर बानो (कांग्रेस, 1996, 1999-2004); रुबाब सईदा (समाजवादी पार्टी, 2004-09); और महबूबा मुफ्ती (पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, 2004-09, 2014-19) शामिल हैं।
संसद के निचले सदन में प्रवेश करने वाली अन्य मुस्लिम महिलाएं तबस्सुम हसन (समाजवादी पार्टी, लोक दल, बहुजन समाज पार्टी 2009-14) हैं; मौसम नूर (तृणमूल कांग्रेस 2009-19); कैसर जहाँ (बहुजन समाज पार्टी, 2009-14); मुमताज संघमिता (तृणमूल कांग्रेस 2014-19), सजदा अहमद (तृणमूल कांग्रेस 2014-24); रानी नाराह (कांग्रेस, 1998-2004, 2009-14); नुसरत जहां रूही (तृणमूल कांग्रेस, 2019-24) और इकरा हसन (समाजवादी पार्टी, 2024-वर्तमान) हैं।
भारतीय राजनीति पर अमिट छाप छोड़ने वाली एक प्रमुख राजनीतिक हस्ती मोहसिना किदवई थीं।
मोहसिना न केवल लोकसभा में पहुंचीं, बल्कि मंत्रिपरिषद में भी शामिल हुईं और श्रम, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण, ग्रामीण विकास, परिवहन और शहरी विकास सहित कई विभागों का कार्यभार भी संभाला।
पुस्तक में एक और आकर्षक व्यक्तित्व के बारे में बात की गई है, वह हैं चाय विक्रेता से नेता बने मोहम्मद जासमीर अंसारी की पत्नी की कैसर जहां । वर्ष 2009 में कैसर जहां ने एक बेहद रोचक चुनावी मुकाबले में जीत हासिल की थी, जबकि उनके पास तैयारी और प्रचार के लिए मुश्किल से पैंतीस दिन का समय था।
वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव नजदीक आते ही मायावती ने विधायक जासमीर और कैसर जहां को लखनऊ बुलाया और कैसर को लोकसभा चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया।
इन 18 प्रमुख मुस्लिम महिलाओं में एक विशिष्ट नाम है — बेगम आबिदा अहमद का, जो भारत के पाँचवें राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद की पत्नी थीं।
वर्ष 1977 में फखरुद्दीन अली अहमद के निधन के चार साल बाद, आबिदा अहमद ने 1981 में उत्तर प्रदेश के बरेली से लोकसभा उपचुनाव लड़ने के लिए सहमति व्यक्त की और जीत हासिल की। इस चुनावी जीत के साथ ही वह प्रतिस्पर्धी राजनीति में प्रवेश करने वाली भारत की पहली और एकमात्र प्रथम महिला बन गईं। वह 1984 में बरेली से लगातार दूसरी बार चुनाव जीतीं।
बेगम नूर बानो, जिनका मूल नाम महताब ज़मानी था। वह रामपुर के पूर्व शासक की विधवा थीं और शाही पृष्ठभूमि से थीं तथा क्षेत्र की राजनीति में एक प्रमुख हस्ती रहीं। उन्होंने समाजवादी पार्टी के नेता आजम खान और उन्हीं की पार्टी से चुनाव लड़ने वाली जया प्रदा से राजनीतिक मुकाबला किया।
उनके पति, नवाब सैयद जुल्फिकार अली खान बहादुर, रोहिल्ला वंश से थे और उन्हें लोकप्रिय रूप से ‘मिक्की मियां’ कहा जाता था। वर्ष 1992 में दिल्ली से रामपुर लौटते समय एक दुर्भाग्यपूर्ण सड़क हादसे में उनकी मृत्यु हो गई।
नूर बानो ने 1996 और 1999 में लोकसभा चुनाव जीतकर संसद में प्रवेश किया, लेकिन 2004 और 2009 में उन्हें बॉलीवुड अभिनेत्री रहीं जया प्रदा से हार का सामना करना पड़ा।
इन 18 मुस्लिम महिलाओं में से एक, बंगाली अभिनेत्री नुसरत जहाँ रूही ने भी कई सामाजिक वर्जनाएं तोड़ीं, जब उन्होंने 2019 में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीतकर संसद में प्रवेश किया।
मौजूदा समय में लोकसभा में केवल एक मुस्लिम महिला सांसद हैं, और वह हैं सपा की इकरा हसन चौधरी।
भाषा रवि कांत दिलीप
दिलीप