नयी दिल्ली, 19 जुलाई (भाषा) उच्चतम न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ 22 जुलाई को राष्ट्रपति के उस संदर्भ पर विचार करेगी जिसमें सवाल उठाया गया है कि क्या राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति के विवेकाधिकार के प्रयोग के लिए न्यायिक आदेशों के माध्यम से कोई समयसीमा निर्धारित की जा सकती है।
उच्चतम न्यायालय की वेबसाइट पर ‘पोस्ट’ की गई वाद सूची के अनुसार, भारत के प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति अतुल एस चंदुरकर की पीठ इस मामले की सुनवाई करेगी।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने मई में अनुच्छेद 143(1) के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए उच्चतम न्यायालय से आठ अप्रैल के उसके (न्यायालय के) फैसले को लेकर 14 महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे, जिसमें राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपालों और राष्ट्रपति के निर्णय लेने के लिए समयसीमा निर्धारित की गई थी।
संविधान का अनुच्छेद 143(1) राष्ट्रपति को यह अधिकार देता है कि ”यदि किसी समय राष्ट्रपति को यह प्रतीत होता है कि कोई ऐसा विधिक या तथ्यात्मक प्रश्न उत्पन्न हुआ है या उत्पन्न होने की संभावना है, जो अपने स्वरूप में और सार्वजनिक महत्व की दृष्टि से ऐसा है कि उस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन होगा, तो वह उस प्रश्न को विचारार्थ उच्चतम न्यायालय को संदर्भित कर सकते हैं, और उच्चतम न्यायालय, जैसा उचित समझे, वैसी सुनवाई के बाद, उस पर अपनी राय राष्ट्रपति को दे सकता है।”
तमिलनाडु सरकार द्वारा प्रश्नगत विधेयकों से निपटने में राज्यपाल की शक्तियों से संबंधित मामले में पारित 8 अप्रैल के फैसले में पहली बार यह निर्धारित किया गया था कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा विचारार्थ आरक्षित विधेयकों पर ऐसा संदर्भ प्राप्त होने की तिथि से तीन महीने के भीतर निर्णय लेना चाहिए।
पांच पृष्ठों के संदर्भ में राष्ट्रपति मुर्मू ने उच्चतम न्यायालय से 14 प्रश्न पूछे तथा राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों से निपटने में अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपालों और राष्ट्रपति की शक्तियों पर उसकी राय जाननी चाही।
अनुच्छेद 200 राज्य विधानसभा द्वारा विधेयकों के पारित किये जाने के बाद की स्थिति से संबंधित है, जिसमें राज्यपाल के समक्ष यह विकल्प होता है कि वह विधेयक को स्वीकृति प्रदान करें, स्वीकृति रोके रखें या उसे पुनर्विचार के लिए राष्ट्रपति के पास भेज दें।
अनुच्छेद 201 राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति के विचार के लिए रखे गए विधेयकों से संबंधित है।
केंद्र ने फैसले की समीक्षा की मांग करने के बजाय राष्ट्रपति के संदर्भ का सहारा लिया है, जिस पर राजनीतिक हलकों में तीखी प्रतिक्रिया हुई है।
नियमों के अनुसार, समीक्षा याचिकाओं पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के एक ही समूह द्वारा चैंबर में सुनवाई की जानी चाहिए, जबकि राष्ट्रपति के संदर्भों पर पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा सुनवाई और विचार किया जाना चाहिए।
हालांकि, उच्चतम न्यायालय संदर्भ में उठाए गए किसी भी या सभी प्रश्नों का उत्तर देने से इनकार कर सकता है।
संदर्भ में रेखांकित किया गया कि अनुच्छेद 200, जो विधेयकों को स्वीकृति देने, विधेयकों पर स्वीकृति को रोकने तथा राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित रखने के लिए राज्यपाल की शक्तियों का निर्धारण करता है, राज्यपाल के लिए संवैधानिक विकल्पों का प्रयोग करने के लिए कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं करता है।
राष्ट्रपति ने कहा कि इसी प्रकार, अनुच्छेद 201, राष्ट्रपति की शक्तियों और विधेयकों को स्वीकृत करने या उस पर स्वीकृति न देने के लिए अपनाई जाने वाली प्रक्रिया निर्धारित करता है। संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत संवैधानिक विकल्पों के प्रयोग के लिए राष्ट्रपति द्वारा अपनाई जाने वाली किसी समय-सीमा या प्रक्रिया का निर्धारण नहीं किया गया है।
राष्ट्रपति मुर्मू ने उच्चतम न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत पूर्ण शक्ति के प्रयोग पर भी सवाल उठाया, ताकि विधेयक को तमिलनाडु के राज्यपाल के समक्ष पुनः प्रस्तुत किया जा सके और उसे पारित मान लिया जाए।
राष्ट्रपति मुर्मू ने उच्चतम न्यायालय से 14 प्रश्न पूछते हुए कहा, ‘‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि कानून के निम्नलिखित प्रश्न उठे हैं और ऐसी प्रकृति और सार्वजनिक महत्व के हैं कि इन पर भारत के उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना आवश्यक है।’’
उच्चतम न्यायालय के फैसले ने सभी राज्यपालों के लिए राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर कार्रवाई करने हेतु एक समय-सीमा निर्धारित की है और यह व्यवस्था दी है कि राज्यपाल को उनके समक्ष प्रस्तुत किसी भी विधेयक के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत कार्यों के प्रयोग में कोई विवेकाधिकार नहीं है और उन्हें मंत्रिपरिषद द्वारा दी गई सलाह का अनिवार्य रूप से पालन करना होगा।
इसमें कहा गया था कि यदि राष्ट्रपति राज्यपाल द्वारा विचारार्थ भेजे गए किसी आरक्षित विधेयक पर अपनी स्वीकृति रोक लेते हैं, तो राज्य सरकारें सीधे उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकती हैं।
न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर महादेवन की पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि ‘‘राज्यपाल के व्यक्तिगत असंतोष, राजनीतिक जरूरत या किसी अन्य असंगत विचार’’ जैसे आधारों पर किसी विधेयक को आरक्षित करना संविधान द्वारा पूरी तरह से अस्वीकार्य है और केवल इसी आधार पर इसे तत्काल रद्द किया जा सकता है।
भाषा संतोष पवनेश
पवनेश