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Monday, September 1, 2025

आपातकाल की 50 वीं बरसी : सामूहिक नसबंदी अभियान की खौफनाक यादें आज भी पीड़ितों को करती हैं परेशान

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(उज्मी अतहर)

नयी दिल्ली, 22 जून (भाषा) देश में आपातकाल के 1975 में आधिकारिक रूप से लागू होने से पहले, ग्रामीण इलाकों में छोटे बच्चे अक्सर बिना कपड़ों के बेफिक्री से दौड़ते-भागते नजर आते थे। लेकिन आपातकाल के दौरान हालात इतने भयावह हो गए कि लोगों ने मासूम बच्चों को भी कपड़े पहनाने शुरू कर दिए — यह शालीनता की भावना से नहीं, बल्कि जबरन नसबंदी की आशंका से उपजा डर था, जिसने पूरे समाज को जकड़ लिया था।

देश 25 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा भारत में लगाए गए आपातकाल की 50वीं बरसी मना रहा है। सामूहिक नसबंदी अभियान की यादें आज भी जीवित बचे पीड़ितों को परेशान करती हैं और सार्वजनिक स्वास्थ्य चर्चा को प्रभावित करती हैं। इनमें से कई लोगों की नसबंदी जबरदस्ती की गई थी।

अकेले 1976 में, पूरे भारत में 80 लाख से अधिक लोगों की नसबंदी की गई। इनमें से ज्यादातर पुरुष थे, जिनमें से कई लोगों की नसबंदी स्वैच्छिक नहीं थी।

दिल्ली के ओखला में रहने वाली 78 वर्षीय इशरत जहां ने कहा, ‘‘यह एक बहुत ही अंधकारमय दौर था — किसी युद्ध से कम नहीं था। हमें नहीं पता था कि अगले दिन क्या होगा। मुझे याद है कि हमलोग इतने डरे हुए थे कि मेरा परिवार आपातकाल खत्म होने तक दिल्ली से बाहर नहीं गया।’’

अमीना हसन (83) आज भी उस घटना को याद करके सिहर उठती हैं। अलीगढ़ में रहने वाली अमीना ने कहा, ‘‘हम गरीब थे, लेकिन हमारे पास सम्मान था। उन्होंने उसे भी छीन लिया। हमारे इलाके में, जब अधिकारी आते थे, तो लोग खेतों और कुओं में छिपने लगते थे। ऐसा लगता था कि हमें शिकार बनाया जा रहा है।’’

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दबाव निरंतर और बिना किसी भेदभाव के डाला जा रहा था। ‘अनसेटलिंग मेमोरीज़’ में मानवविज्ञानी एम्मा टार्लो ने बताया है कि कैसे लोक सेवकों, फैक्टरी मजदूरों और पुलिसकर्मियों को अक्सर नसबंदी करवाने के लिए मजबूर किया जाता था।

एक कर्मचारी ने उन्हें (टार्लो को) बताया, ‘‘अधिकारियों ने कहा कि आपकी नौकरी तभी रहेगी, जब आप नसबंदी करवाएंगे। मेरे पास सोचने का समय नहीं था। मैंने हामी भर दी, क्योंकि मुझे अपनी नौकरी बचानी थी और अपने परिवार का पालन-पोषण करना था।’’

पुरुष नसबंदी से जुड़ा कलंक इतना गंभीर था कि कई समुदायों में इसे नपुंसकता के बराबर माना जाता था। उस समय पूरे उत्तर भारत में आपातकाल विरोधी एक नारा इस भावना को अभिव्यक्त करता था: ‘नसबंदी के दूत, इंदिरा गांधी की लूट।’’

सबसे हिंसक घटनाओं में से एक दिल्ली के तुर्कमान गेट इलाके में हुई, जो एक ऐतिहासिक मुस्लिम इलाका है। अप्रैल 1976 में, जब वहां रहने वाले लोगों ने शहरी ‘सौंदर्यीकरण’ अभियान से जुड़े तोड़-फोड़ का विरोध किया और नसबंदी कराने से इनकार कर दिया, तो पुलिस ने गोलीबारी शुरू कर दी।

पूरे के पूरे परिवार विस्थापित हो गए, घरों को ढहा दिया गया, लेकिन यह इलाका आज भी आपातकाल की ज्यादतियों का स्थायी प्रतीक बना हुआ है।

‘पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया’ की कार्यकारी निदेशक पूनम मुत्तरेजा ने कहा कि आपातकाल के दौरान उठाए गए बलपूर्वक कदमों ने ‘पुरुषों और महिलाओं दोनों के प्रजनन अधिकारों को पीछे धकेल दिया।’?

उन्होंने कहा, ‘‘भारत की आबादी को लंबे समय तक डर और कमी की संकीर्ण दृष्टि से देखा जाता था। लेकिन आज, यह मान्यता बढ़ रही है कि हमारे लोग हमारी सबसे बड़ी ताकत हैं।’’

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पूनम ने कहा, ‘‘भारत की ताकत इसकी युवा आबादी में निहित है – इसका जनसांख्यिकीय लाभांश। लेकिन सबसे अधिक आबादी वाला देश होने के नाते हमारी बहुत बड़ी जिम्मेदारी भी है। यह केवल संख्याओं के बारे में नहीं है – यह शिक्षा, स्वास्थ्य और अवसर के माध्यम से हर जीवन में निवेश करने के बारे में है।’’

भाषा रंजन दिलीप

दिलीप

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