नयी दिल्ली, 27 जून (भाषा) राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से संबद्ध एक पत्रिका में शुक्रवार को प्रकाशित एक लेख में कहा गया है कि सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले द्वारा संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों की समीक्षा करने का आह्वान, इसे तहस-नहस करने के लिए नहीं है, बल्कि आपातकाल के दौर की नीतियों की विकृतियों से मुक्त होकर इसकी ‘‘मूल भावना’’ को बहाल करने के बारे में है।
इस मुद्दे पर संविधान सभा में हुई बहस का हवाला देते हुए, लेख में कहा गया है कि होसबाले का आह्वान भीम राव आंबेडकर और संविधान सभा द्वारा समर्थित लोकतांत्रिक सिद्धांतों से मेल खाता है, जिसने 1948 में भारत को ‘‘पंथनिरपेक्ष, संघीय, समाजवादी राज्यों के संघ’’ के रूप में वर्णित करने के प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।
‘ऑर्गनाइजर’ पत्रिका की वेबसाइट पर प्रकाशित लेख में कहा गया है, ‘‘उनका 42वां संशोधन एक राजनीतिक पैंतरेबाजी थी, न कि संविधान सभा की विचार-विमर्श प्रक्रिया का प्रतिबिंब। इसके विपरीत, सरकार्यवाह (होसबाले) की टिप्पणी संविधान को आंबेडकर के लोकतांत्रिक ढांचे के दृष्टिकोण के अनुरूप करने के लिए एक खुली बातचीत की मांग करती है।’’
इसमें कहा गया है, ‘‘सरकार्यवाह का आह्वान संविधान को खत्म करने के बारे में नहीं है, बल्कि कांग्रेस की आपातकाल के दौर की नीतियों की विकृतियों से मुक्त होकर इसकी (संविधान की) मूल भावना को बहाल करने के बारे में है।’’
लेख में कहा गया है कि संविधान के मूल उद्देश्य का सम्मान करने के लिए यह एक आवश्यक चर्चा है, साथ ही कांग्रेस पार्टी के उस ‘‘पाखंड’’ को ‘‘उजागर’’ करना है, जिसके तहत उसने भाजपा-आरएसएस पर संविधान को खतरे में डालने का आरोप लगाया है, जबकि कांग्रेस ने ही ‘‘अधिनायकवादी युग’’ के दौरान संविधान में बदलाव किया था।
आरएसएस सरकार्यवाह ने बृहस्पतिवार को संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों की समीक्षा करने का आह्वान करते हुए कहा था कि इन्हें आपातकाल के दौरान शामिल किया गया था और ये कभी भी संविधान का हिस्सा नहीं थे।
होसबाले के बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कांग्रेस ने शुक्रवार को आरोप लगाया कि आरएसएस ने संविधान को ‘‘कभी स्वीकार नहीं किया’’ और प्रस्तावना में मौजूद ‘समाजवादी’ एवं ‘पंथनिरपेक्ष’ शब्दों की समीक्षा करने की इसकी मांग एक न्यायसंगत, समावेशी और लोकतांत्रिक भारत की आंबेडकर की दृष्टि को तहस-नहस करने की लंबे समय से चली आ रही साजिश का हिस्सा है।
विपक्षी दल ने यह भी कहा कि आरएसएस का सुझाव ‘‘हमारे संविधान की आत्मा (प्रस्तावना) पर जानबूझकर किया गया हमला है।’’
पंद्रह नवंबर 1948 को हुई संविधान सभा में बहस का हवाला देते हुए लेख में कहा गया, ‘‘प्रो. के. टी. शाह ने भारत को ‘पंथनिरपेक्ष, संघीय, समाजवादी राज्यों का संघ’ बताने के लिए अनुच्छेद 1 में संशोधन का प्रस्ताव रखा था।’’
शाह ने तर्क दिया था कि ‘‘पंथनिरपेक्ष’’ शब्द सभी धर्मों के प्रति राज्य (सरकार) की तटस्थता की पुष्टि करेगा। उन्होंने समानता की आवश्यकता को रेखांकित करने के लिए भारत के सांप्रदायिक इतिहास का हवाला दिया, और ‘समाजवाद’ को निजी संपत्ति को खत्म किए बिना आर्थिक न्याय और समान अवसर सुनिश्चित करने के रूप में परिभाषित किया।
लेख में दावा किया गया है, ‘‘प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ. आंबेडकर ने शाह के संशोधन का जोरदार तर्क के साथ विरोध किया था। उन्होंने कहा था कि संविधान को शासन के लिए एक ढांचे के रूप में काम करना चाहिए, न कि विशिष्ट विचारधाराओं को थोपने के लिए एक मंच के रूप में।’’
लेख में आंबेडकर की टिप्पणी को उद्धृत करते हुए कहा गया है, ‘‘सरकार की नीति क्या होनी चाहिए, समाज को उसके सामाजिक और आर्थिक पक्ष में किस प्रकार संगठित किया जाना चाहिए, ये ऐसे मामले हैं जिनका निर्णय लोगों को समय और परिस्थितियों के अनुसार स्वयं करना चाहिए।’’
इसमें कहा गया कि आंबेडकर का मानना था कि ‘समाजवादी’ शब्द को शामिल करने से भावी पीढ़ियों की अपनी सामाजिक व्यवस्था चुनने की छूट सीमित हो जाएगी, क्योंकि ‘‘सोच-विचार करने वाले लोग’’ समाजवाद से एक बेहतर व्यवस्था बना सकते हैं।
लेख में दावा किया गया है कि ‘पंथनिरपेक्ष’ के मुद्दे पर आंबेडकर चुप रहे थे, संभवतः इसलिए कि मौलिक अधिकार (संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में निहित) पहले से ही धार्मिक समानता और गैर-भेदभाव की गारंटी देते हैं, जिससे ‘‘यह शब्द निरर्थक हो जाता है।’’
लेख में कहा गया है, ‘‘कांग्रेस का वर्तमान विमर्श, जिसमें भाजपा-आरएसएस पर संविधान को कमजोर करने की साजिश रचने का आरोप लगाया जा रहा है, पाखंड की पराकाष्ठा है। राहुल गांधी जैसे नेता रैलियों में संविधान की प्रति लहराते हैं, लेकिन आपातकाल के दौरान इसके उल्लंघन में अपनी पार्टी की रही भूमिका को स्वीकार नहीं करते।’’
इसमें कहा गया है, ‘‘कांग्रेस ने असहमति जताने वालों को जेल में डालने, स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने या प्रस्तावना में संशोधन करने के लिए कभी माफी नहीं मांगी है।’’
भाषा सुभाष दिलीप
दिलीप