नयी दिल्ली, नौ जुलाई (भाषा) दिल्ली उच्च न्यायालय ने बुधवार को दिल्ली सरकार को निर्देश दिया कि वह विधि विज्ञान प्रयोगशाला (एफएसएल) को अनावश्यक पोस्टमॉर्टम नमूनों की जांच करने से रोकने के लिए दिशानिर्देश तैयार करने पर विचार करे।
मुख्य न्यायाधीश डी. के. उपाध्याय और न्यायमूर्ति अनीश दयाल की खंडपीठ ने कहा कि इस तरह के अंधाधुंध ‘रेफरल’ से एफएसएल पर अत्यधिक बोझ पड़ता है, जिससे महत्वपूर्ण नमूनों के विश्लेषण में देरी होती है और इसलिए आपराधिक मामलों में समय पर जांच और न्याय मिलने में बाधा आती है।
यह निर्देश मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज में फोरेंसिक औषधि में एमडी कर रहे रेजिडेंट डॉक्टर सुभाष विजयन द्वारा दायर जनहित याचिका पर दिए गए।
अदालत ने संबंधित अधिकारियों को इन मुद्दों की जांच करने और तीन महीने में निर्णय लेने का निर्देश दिया। साथ ही अदालत ने कहा, ‘‘अत्यधिक और अक्सर अनावश्यक रेफरल के कारण, एफएसएल में ऐसे मामलों की बाढ़ आ जाती है, जिनसे बचा जा सकता था। इससे महत्वपूर्ण नमूनों की जांच में देरी होती है और आपराधिक न्याय प्रणाली की समग्र गति प्रभावित होती है।’’
विजयन की याचिका में जैविक नमूनों जैसे कि विसरा, रक्त और ऊतकों को ‘‘अंधाधुंध’’ तरीके से एफएसएल भेजने के चलन की ओर इशारा किया गया है, भले ही यह चिकित्सकीय या कानूनी रूप से आवश्यक न हो।
उन्होंने दावा किया कि कई डॉक्टर ‘‘बचने’’ के तौर पर फॉरेंसिक जांच के लिए नमूने भेजते रहते हैं, यहां तक कि उन मामलो में भी जहां कोई संदेश या आपराधिक साजिश शामिल नहीं होती।
याचिका में कहा गया है कि चिकित्सकों द्वारा ऐसा व्यवहार मुख्यतः भविष्य में कानूनी जांच के डर के कारण किया जाता है।
याचिका में कहा गया है कि कई मामलों में पुलिस अधिकारी स्पष्ट रूप से कहते हैं कि जांच के लिए प्रयोगशाला विश्लेषण की आवश्यकता नहीं है लेकिन इसके बावजूद नमूने भेज दिए जाते हैं।
इसमें कहा गया है, ‘‘अधिकांश डॉक्टर अदालतों और हमारी कानूनी प्रणाली से डरते हैं। किसी भी संभावित कानूनी जटिलता से बचने के लिए वे लगभग हर मामले में नमूने भेजना पसंद करते हैं, चाहे वह जरूरी हो या नहीं। यह अनुचित सतर्कता व्यवस्था को कुंद कर रही है।’’
भाषा गोला पवनेश
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