उत्तराखंड के उत्तरकाशी में बादल फटने (Cloudburst) ki घटना ने तबाही का जो मंजर दिखाया, वो खौफनाक है. खासकर धराली गांव और यमुनोत्री हाईवे के पास सिलाई बैंड इलाके में जिस तरह नदियों और नालों में अचानक बाढ़ आ गई और मलबा बस्तियों और सड़कों में घुस गया, उसे देखकर तो जैसे रूह भी कांप जाए. ऐसा तबाही का मंजर इसलिए है क्योंकि हमारा ‘विकास का मॉडल’ अव्यवस्थित है.
ना तो निर्माण कार्य में कोई वैज्ञानिक सोच दिखती है और ना ही जंगलों की कटाई रुक रही है. नदियों के किनारे हो रहे अनियंत्रित विकास ने जोखिम और तबाही की तीव्रता को भी बढ़ा दिया है. उदाहरण के तौर पर, उत्तरकाशी की घटना की वजह पर बात करें तो वजह है- उत्तरकाशी समेत उत्तराखंड के कई हिस्सों में वनों के कटान से जलस्रोतों का प्रवाह का घटना. कुछ क्षेत्रों में तो 30% जलस्रोत मौसमी रह गए और 17% पूरी तरह सूख गए. रिसर्च के अनुसार, जिन क्षेत्रों के बांज के जंगल कट गए वहां जल की उपलब्धता घटी है, जिससे किसानों और ग्रामीणों को भारी दिक्कत हुई.
भूकंपीय जोखिमों की आशंका
जब टिहरी बांध परियोजना लाई गई तो 1970 के दशक में इसका काफी विरोध हुआ, जो एक बड़े आंदोलन में तब्दील हुआ था. विस्थापन, पर्यावरणीय प्रभावों और भूकंपीय जोखिमों की आशंका की वजह से इस आंदोलन ने काफी जोर पकड़ा था. हालांकि बावजूद इसके काम, 2006 में पूरा हुआ.
बादल बनने की प्रक्रिया तेज
अब बादल फटने की वजह को इसे भी कारण बताया जा रहा है. दरअसल, जिस भागीरथी नदी का जलग्रहण क्षेत्र पहले काफी सीमित था, बांध बनने के बाद वह बहुत बढ़ गया है. इतनी बड़ी मात्रा में एक जगह पानी इकट्ठा होने से बादल बनने की प्रक्रिया तेज हो गई है. मानसून सीजन में ये बादल इस पानी को ‘सह’ नहीं पाते और फट जाते हैं.
सन् 1983-98 के दौरान टिहरी और उत्तरकाशी के कई वन क्षेत्रों (जैसे– गोमुख, जांगला, नेलंग, हर्षिल, मोरी, आदि) में वन माफियाओं और विभाग की मिलीभगत से रातों-रात हरे पेड़ काटे गए. इससे जंगलों में पेड़ की संख्या तेजी से घटी और जलस्रोतों पर बुरा असर पड़ा.
नदियों के किनारे हो रेत और पत्थर का अवैध खनन
एक वजह, उत्तरकाशी जिले में यमुना तट और अन्य नदियों के किनारे हो रेत और पत्थर का अवैध खनन भी है. इस पर कई कंपनियों और स्थानीय प्रशासन के खिलाफ जांच और एनजीटी द्वारा दंड की कार्यवाही भी हो चुकी है. ऐसे खनन के मामले में पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी सामने आई, जिससे नदियों का स्वरूप, प्रवाह और आस-पास की भूमि बुरी तरह प्रभावित हुई.चारधाम यात्रा मार्ग, गंगोत्री हाईवे, आदि सड़क परियोजनाओं में भारी संख्या में पेड़ों की कटाई की गई. क्षेत्र के विशेषज्ञों और ग्रामीणों ने चेताया कि इससे भूस्खलन और आपदाओं का खतरा और बढ़ गया है.
आंकड़ों का विश्लेषण
इन सबके, बीच कुछ सालों के आंकड़ों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि पूरे मानसून सीजन में बारिश तो लगभग समान ही रिकॉर्ड हो रही है, लेकिन ‘रेनी डे’ (किसी एक स्थान पर एक दिन में 2.5 मिमी या उससे अधिक बारिश दर्ज होने को ‘रेनी डे’ कहा जाता है) की संख्या में कमी आई है. अब बारिश पहले के मुकाबले 7 दिनों की बजाय केवल 3 दिनों में ही हो जा रही है, जिससे हालात बिगड़ रहे हैं. मानसून सीजन भी जून से सितंबर तक फैला होता था, वह अब सिकुड़कर केवल जुलाई-अगस्त तक सिमट गया है.
मैदानी क्षेत्रों से वन गायब
अतिवृष्टि के लिए वन क्षेत्र का मैदानी इलाकों से खत्म होना भी बड़ी वजह है. उत्तराखंड के 70% से अधिक क्षेत्र में वन हैं, लेकिन मैदानी क्षेत्रों में वन नाममात्र के ही हैं. ऐसे में मानसूनी हवाओं को मैदानों में बरसने के लिए अनुकूल वातावरण नहीं मिल पाता और पर्वतीय क्षेत्रों में घने वनों के ऊपर पहुंचकर मानसूनी बादल अतिवृष्टि के रूप बरस जाते हैं. आज जरूरत सिर्फ पर्वतीय क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि मैदानी क्षेत्रों में भी तीव्र वनीकरण की आवश्यकता है.