नयी दिल्ली, 13 अगस्त (भाषा) यूरोपीय संघ में ‘कार्बन सीमा समायोजन प्रणाली’ (सीबीएएम) के लागू होने और घरेलू स्तर पर कार्बन मूल्य निर्धारण प्रणाली नहीं होने की स्थिति में 2026 से 2030 के बीच भारत के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 0.02 से 0.03 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है। एक अध्ययन रिपोर्ट में यह आशंका जताई गई है।
शोध संस्थान ‘सेंटर फॉर सोशल एंड इकनॉमिक प्रोग्रेस’ (सीएसईपी) के एक अध्ययन के मुताबिक, सीबीएएम केंद्रित कर प्रणाली यूरोपीय संघ में लागू हो जाने का भारत के शहरी परिवारों पर सबसे अधिक असर पड़ेगा क्योंकि कार्बन उत्सर्जन की अधिकता वाले वस्तुओं की कीमतें बढ़ेंगी।
हालांकि, घरेलू कार्बन कर व्यवस्था को लागू कर राजस्व देश में ही रखने से यूरोपीय संघ के इस कर का आर्थिक असर काफी हद तक कम किया जा सकता है।
यूरोपीय संघ का सीबीएएम के तहत उन देशों से आने वाले कुछ खास उत्पादों पर कार्बन कर लगाने का प्रावधान है, जहां पर पर्यावरण नियम एवं कार्बन उत्सर्जन नियंत्रण मानक कम सख्त हैं।
यूरोपीय संघ की कार्बन कर प्रणाली शुरुआती चरण में इस्पात, एल्युमीनियम, सीमेंट, उर्वरक, बिजली एवं हाइड्रोजन पर लागू होगी। वर्ष 2026 में इसका अनुमानित शुल्क 5,200 रुपये प्रति टन कार्बन डाई-ऑक्साइड के बराबर होगा और यह सालाना पांच प्रतिशत की दर से बढ़ेगा।
अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि घरेलू स्तर पर कार्बन कर लागू न होने की स्थिति में भारतीय निर्यातकों को करीब 90 प्रतिशत उत्पादों पर यूरोपीय संघ में कर चुकाना पड़ेगा। इस तरह वर्ष 2030 में यूरोपीय संघ को करीब 5,500 करोड़ रुपये चुकाना पड़ सकता है।
वहीं, घरेलू कार्बन कर लगाकर सरकार वर्ष 2026 में 2.93 लाख करोड़ रुपये और 2030 में 3.61 लाख करोड़ रुपये तक राजस्व जुटा सकती है।
सीएसईपी ने इस राजस्व का उपयोग हरित सब्सिडी, औद्योगिक कार्बन कटौती और लक्षित परिवारों की सहायता पर करने की सिफारिश की है।
रिपोर्ट के लेखकों ने कहा कि यूरोपीय संघ के कार्बन कर की चपेट में आने वाले भारतीय निर्यात देश की जीडीपी का सिर्फ 0.2 प्रतिशत होने के बावजूद प्रमुख क्षेत्रों एवं परिवारों के कल्याण कार्यक्रमों पर असर डाल सकता है।
भाषा प्रेम
प्रेम अजय
अजय