1980 से 1990 के बीच प्रदेश लगातार राजनीतिक अस्थिरता से गुजर रहा था। 1980 में जगन्नाथ पहाड़िया के बाद 1981-85 तक शिवचरण माथुर मुख्यमंत्री रहे। फिर हरिदेव जोशी को सत्ता की बागडोर मिली और उन्होंने 1988 तक सरकार चलाई। उसके बाद फिर माथुर की वापसी हुई, लेकिन वे महज सालभर ही टिक पाए। 1989 में हरिदेव जोशी दोबारा गद्दी पर आए, मगर साल 1990 के बाद वे भी हाशिए पर चले गए। इन वर्षों में राजस्थान ने एक के बाद एक कई मुख्यमंत्रियों को बदलते देखा।
यही वह दौर था जब दिल्ली के करीब माने जाने वाले नेता अशोक गहलोत प्रदेश कांग्रेस के मठाधीशों की आंखों की किरकिरी बन गए थे। आज गहलोत का जिक्र होता है तो बातचीत अक्सर उनकी सचिन पायलट से अदावत या हालिया वर्षों में डॉ. सीपी जोशी जैसे दिग्गजों को पटखनी देने तक सिमट जाती है। लेकिन 90 के दशक की शुरुआत में, जब गहलोत प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे, तब उनके खिलाफ पार्टी के भीतर ही असंतुष्ट विधायकों और सांसदों की बड़ी फौज खड़ी हो गई थी। इसी असंतोष की अगुवाई हरिदेव जोशी, हीरालाल देवपुरा और सांसद नवलकिशोर शर्मा ने की।
डीग कांड और माथुर की विदाई
20 फरवरी 1985 को शिवचरण माथुर चुनाव प्रचार के लिए भरतपुर जिले के डीग कस्बे में पहुंचे थे। वहां निर्दलीय प्रत्याशी और पूर्व विधायक राजा मानसिंह व कांग्रेस समर्थकों के बीच टकराव हो गया। कहा जाता है कि राजा मानसिंह ने अपनी जीप से चुनाव सभा का मंच और माथुर के हेलिकॉप्टर को नुकसान पहुंचाया। पुलिस ने उन पर हत्या के प्रयास का मामला दर्ज किया। अगले दिन 21 फरवरी को डीग बाजार में पुलिस से झड़प के दौरान गोलीबारी हुई, जिसमें राजा मानसिंह और उनके दो साथी मारे गए।
इस घटना ने न सिर्फ राजस्थान बल्कि पूरे देश में जाट समाज को कांग्रेस के खिलाफ खड़ा कर दिया। नतीजा यह हुआ कि चुनाव के बाद शिवचरण माथुर से इस्तीफा ले लिया गया और 1985 में हरिदेव जोशी को मुख्यमंत्री बना दिया गया। इसके बाद सत्ता की कमान कभी जोशी तो कभी माथुर के हाथों में रही।
1988 में माथुर की वापसी और नया मंत्रिमंडल
प्रधानमंत्री राजीव गांधी की इच्छा पर 20 जनवरी 1988 को विधानसभा कांग्रेस दल ने माथुर को नेता चुना। 26 जनवरी को उन्होंने छोटा मंत्रिमंडल गठित किया, जिसमें हनुमान प्रभाकर, गोविंदसिंह गुर्जर, डॉ. बीडी कल्ला और माधोसिंह दीवान मंत्री बनाए गए। वहीं वैद्य भैरूलाल भारद्वाज, अश्कअली टाक और कमला भील को राज्यमंत्री नियुक्त किया गया।
इसके बाद 6 फरवरी 1988 को मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ, जिसमें शीशराम ओला, नरपतराम बरबड़, नारायणसिंह, रघुनाथ विश्नोई, रामकिशन वर्मा जैसे नेता शामिल हुए। बीना काक, डॉ. गिरिजा व्यास, चंद्रशेखर शर्मा और सूरजपालसिंह जैसे युवा चेहरे भी सरकार में आए। राजनीति में नया खून उतर चुका था और सत्ता में हिस्सेदारी की होड़ तेज थी।
असंतोष और गहलोत का गृह मंत्री बनना
माथुर ने हरिदेव जोशी मंत्रिमंडल (1985-88) के कई वरिष्ठ नेताओं को बाहर कर दिया था। हीरालाल देवपुरा, गुलाबसिंह शक्तावत, रामसिंह विश्नोई, नरेंद्रसिंह भाटी, रामदेवसिंह, सुजानसिंह यादव जैसे कई नाम मंत्रिमंडल से बाहर थे। इससे पार्टी में असंतोष गहराता गया।
इस बीच माथुर ने अशोक गहलोत को गृह मंत्री बना दिया। गृह जैसा अहम विभाग अब तक खुद सीएम के पास था। गहलोत तब विधायक भी नहीं थे, बल्कि लोकसभा सदस्य थे। यह निर्णय पार्टी में कई लोगों को नागवार गुजरा। उधर, हनुमानप्रसाद प्रभाकर और लक्ष्मणसिंह को मंत्रिमंडल से बाहर करने से असंतोष और भड़क उठा। धीरे-धीरे गहलोत असंतुष्ट खेमे के सीधे निशाने पर आ गए।
1989: बजट सत्र का बहिष्कार और बगावत
असंतोष का चरम उस समय देखने को मिला जब 1989 में विधानसभा का बजट सत्र शुरू हुआ। सत्तारूढ़ दल के ही असंतुष्ट विधायकों ने 17 मार्च को सत्र का बहिष्कार कर दिया। यह कांग्रेस इतिहास में अभूतपूर्व था। हाईकमान को हस्तक्षेप करना पड़ा और सीएम को केवल चार महीने का लेखानुदान पारित कर सत्र खत्म करने का निर्देश दिया गया।
दिल्ली से आया संदेश और नए समीकरण
जब अंदरूनी कलह थमी नहीं, तो कांग्रेस हाईकमान ने सख्त कदम उठाए। जगन्नाथ पहाड़िया और हरिदेव जोशी को क्रमशः बिहार और असम का राज्यपाल बना दिया गया। 7 जून 1989 को अशोक गहलोत को हटाकर हीरालाल देवपुरा को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नियुक्त किया गया। वहीं माथुर को मंत्रिमंडल विस्तार का आदेश दिया गया। 6 जून 1989 को तीसरा विस्तार और मंत्रिपरिषद 35 सदस्यों तक पहुंच गई, जिसमें मुख्यमंत्री समेत 13 मंत्री, 16 राज्यमंत्री, 3 उपमंत्री और 3 संसदीय सचिव शामिल थे।