जयपुर। एक शहर की बसावट, महज कागज पर उतरी कल्पना से ईंट-पत्थर की संरचना महज नहीं होती, बल्कि उसमें होते हैं- संस्कृति और इतिहास की परछाई के साथ भविष्य के सपने और उसके रहवासियों की यादें और उम्मीदें। जब इन शहरों में बैठे मठाधीशों के हाथ जब यह जिम्मेदारी आती है तो संवेदनहीनता, लालच और भ्रष्ट गठजोड़ के चलते यह सब कुछ बिखरने सा लगता है। इन शहरों में सपना संजोए बैठे बाशिंदों के सामने अधूरी कहानियों का मलबा रह जाता है और जयपुर की हाउसिंग सोसायटी घोटाले की गाथा इसका जीवंत उदाहरण है।
अरावली की गोद में बसी गुलाबी नगरी की भी यही कहानी है। वो शहर, जिसे 18वीं सदी में एक वाणिज्यिक केंद्र की तरह स्थापित करते हुए उसके लिए खास तौर पर वास्तुशास्त्र के सिद्धांत का प्रयोग किया गया। राजधानी की चारदीवारी में बसावट की यह सुंदरता साफ महकती थी।
अब बेतरतीब बसावट की गिरफ्त में राजधानी
लेकिन जब अफसरशाहों को इसका जिम्मा दिया गया, तो यह धूल, धुएं और बेतरतीब बसावट की गिरफ्त में है। सहकारी समितियों ने ‘हर परिवार को घर’ का सपना बेचकर धोखे का बाज़ार खड़ा कर लिया, कहीं एक ही भूखंड 5-5 परिवारों को बेचा गया, कहीं बैकडेटिंग करके काग़ज़ों पर पट्टे पुराने सालों में दर्ज किए गए, कहीं एक ही व्यक्ति या परिवार के नाम सौ-सौ प्लॉट निकले। हम ऐसा क्यों कह रहे हैं, उसका आधार समझिए। साल 2005 से 2017 के बीच ऐसे 2,457 आपराधिक मामले दर्ज हुए। लेकिन पुलिस ने 1,700 से अधिक मामलों में “निगेटिव फाइनल रिपोर्ट” लगाकर फाइलें बंद कर दीं और केवल 382 मामलों में चार्जशीट दायर हुई। नतीजा यह कि अपराधी बच निकले और पीड़ित नागरिक दशकों तक कोर्ट के चक्कर काटते रहे; अदालतें बार-बार चेतावनी देती रहीं।
जब साल 2013 में अमानीशाह नाले पर कब्ज़े हटाने का आदेश आया तो जजों ने कहा कि नाले, पार्क और सड़कें जनता की जीवनरेखा हैं, इन्हें निजी मुनाफ़े के लिए बेचा नहीं जा सकता। 2019 में हाईकोर्ट ने हर सोसायटी का ऑडिट कराने, समन्वय समिति बनाने और ज़ोन-वार अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया, लेकिन ज़मीन पर नतीजा मामूली निकला क्योंकि प्रशासनिक तंत्र और राजनीतिक संरक्षण ने इस बीमारी को और फैलाया।
सरकार की योजनाओं से बड़ा घाटा
आज हाल यह है कि जयपुर की लगभग 80 प्रतिशत नई बसावट अनियोजित सहकारी कॉलोनियों पर आधारित है। परिणामस्वरूप शहर रोज़ाना ट्रैफिक जाम, पार्किंग संकट, प्रदूषण, जलभराव और सार्वजनिक सुविधाओं की कमी से जूझता है। पृथ्वीराज नगर योजना की 11,000 बीघा ज़मीन पर कब्ज़े से अकेले 1.25 लाख करोड़ का नुकसान और कुल मिलाकर पिछले चार दशकों में 5 लाख करोड़ तक की अनुमानित हानि हुई है। यह हानि केवल सरकार की राजस्व पुस्तकों की नहीं, बल्कि उन परिवारों की भावनाओं की भी है, जिन्होंने अपनी जीवन भर की कमाई इन सपनों के नाम समर्पित की।
सोचिए अगर यही विकास नियोजित ढंग से होता तो चौड़ी सड़कें, खुले पार्क, बच्चों के स्कूल, अस्पताल और सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था होती। तब तो जयपुर वाकई दुनिया के सामने एक मॉडल सिटी की मिसाल पेश करता, लेकिन भ्रष्ट तंत्र ने इसे एक ‘Institutional Slum’ बना दिया है।
इन समाधानों की तरफ बढ़ना होगा…
- अब समय है कि हम केवल अतीत की शिकायतों में न फंसकर, भविष्य की राह ईमानदारी से प्रशस्त करें। ब्लॉकचेन-आधारित लैंड रजिस्ट्री से हर पट्टा और ट्रांसफर का पारदर्शी रिकॉर्ड बने।
- जीआईएस मैपिंग से हर प्लॉट का जीपीएस लोकेशन दर्ज हो, ताकि डुप्लीकेट बिक्री असंभव हो। नागरिक डैशबोर्ड से हर सोसायटी का ऑडिट, टाइटल और केस स्टेटस सबके सामने खुला रहे।
- सबसे महत्वपूर्ण यह कि कानून ऐसा हो, जिसमें सहकारी धोखाधड़ी गैर-जमानती अपराध बने। रजिस्ट्रार और अफसर व्यक्तिगत जवाबदेही से बंधें। तभी जयपुर का यह अधूरा सपना पूरा होगा और गुलाबी नगरी फिर से ईमानदार सपनों की नगरी बन पाएगी। जहां हर प्लॉट केवल ज़मीन नहीं, बल्कि न्याय, भरोसे और सुरक्षित भविष्य की गारंटी होगा।