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Wednesday, October 8, 2025

बिजली चोरी की असली कहानी: जनता पर आरोप, कॉर्पोरेट-नीतिगत गड़बड़ियों पर परदा

OP-EDबिजली चोरी की असली कहानी: जनता पर आरोप, कॉर्पोरेट-नीतिगत गड़बड़ियों पर परदा

बिजली चोरी का समर्थन किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है, लेकिन केवल उपभोक्ताओं पर उंगली उठाना संकीर्ण सोच है, क्योंकि ऊर्जा उपभोग किसी देश की आर्थिक प्रगति का बुनियादी पैमाना होता है। भारत में प्रति व्यक्ति वार्षिक बिजली खपत लगभग 1327 यूनिट है जबकि वैश्विक औसत 3700 यूनिट से अधिक है, अमेरिका में यह आँकड़ा 12,000 यूनिट और चीन में 6000 यूनिट तक पहुँच चुका है।

ऐसे परिदृश्य में अखबारों द्वारा किसी इलाके में उपभोक्ताओं के बिल न चुकाने या चोरी की घटनाओं को बड़े मुद्दे की तरह उछालना वास्तविक तस्वीर का छोटा हिस्सा मात्र है। असल समस्या यह है कि उत्पादन से लेकर वितरण तक हर स्तर पर किस प्रकार वित्तीय हानि और संगठित चोरी हो रही है, इसका खुलासा शायद ही कभी होता है। राजस्थान सहित कई राज्यों की बिजली कंपनियों पर आज 1,60,000 करोड़ रुपए से अधिक का कर्ज़ है।

कुछ साल पहले “चेंज इन लॉ” के नाम पर एक निजी कंपनी को केवल ब्याज की मद में 6000 करोड़ रुपए का भुगतान कर दिया गया, लेकिन अखबार खामोश रहे। बाड़मेर की लिग्नाइट परियोजना के कारण उपभोक्ताओं पर 12,000 करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ डाला गया, और इसके आकलन के लिए कंपनी दस्तावेज़ तक उपलब्ध नहीं करा रही, मगर कहीं सुर्ख़ी नहीं बनती। हाल ही में 3200 मेगावाट बिजली की अनावश्यक खरीद के टेंडर पर भी मीडिया सन्नाटे में है, जबकि यह दीर्घकालिक वित्तीय बोझ उपभोक्ताओं की जेब से ही वसूला जाएगा।

दूसरी तरफ भारत में ट्रांसमिशन और डिस्ट्रीब्यूशन लॉस 16–18% है जबकि विकसित देशों में यह केवल 5–7% है, राजस्थान जैसे राज्यों में तो यह आँकड़ा 20% तक पहुँच जाता है। इन बड़े सवालों पर अखबारों और मीडिया की चुप्पी उल्लेखनीय है, जबकि मोहल्ले स्तर पर बिजली चोरी की छोटी घटनाओं को लगातार उछाला जाता है ताकि यह धारणा बने कि असली समस्या आम जनता में है।

जनप्रतिनिधि भी इस नैरेटिव का प्रतिकार नहीं करते क्योंकि बिल न चुकाने या चोरी से जुड़ी खबरें उन्हें अपने मतदाताओं के बीच संरक्षक की छवि देती हैं। इधर उपभोक्ता पेट्रोल और डीज़ल जैसे उत्पादों पर लागत से दोगुना टैक्स चुका रहा है जहाँ पेट्रोल की आधार कीमत 35–40 रुपए प्रति लीटर है और उपभोक्ता 100 रुपए से अधिक में भुगतान करता है इसी मानसिकता के चलते बिजली कंपनियाँ हर साल नए-नए फ्यूल सरचार्ज, फिक्स्ड कॉस्ट और वेरिएबल चार्ज जोड़कर जनता पर बोझ डालती जा रही हैं।

स्मार्ट मीटर जैसे प्रयोग भी उपभोक्ता के स्तर पर उसी के द्वारा लागत-भुगतान मॉडल पर किए जा रहे है जबकि ग्रिड से लेकर पॉवर प्लांट तक सब खस्ताहाल पड़े है। और नियामक आयोग राजनीतिक कठपुतली बनकर केवल मुहर लगाने का काम कर रहे हैं। नतीजा यह है कि असली चोरी पर परदा डाल दिया जाता है, कॉर्पोरेट स्तर की गड़बड़ियाँ और नीतिगत विसंगतियाँ छुपा दी जाती हैं, और चोरी का ठप्पा आम जनता के माथे पर मढ़ दिया जाता है।

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