पिछले दिनों राजस्थान में 50 हजार से अधिक पदों पर चपरासी भर्ती परीक्षा हुई, जिसमें सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहे लगभग हर अभ्यर्थी ने हिस्सा लिया। बड़ी खबर यह रही कि इसमें पीएचडी धारकों की भी बड़ी संख्या शामिल हुई। रिसर्च और इनोवेशन करने वाले ये युवा भी अब सरकारी नौकरी तलाश रहे हैं। उच्च शिक्षा में शोध करने वाले युवाओं की यह प्रवृत्ति पीएचडी को मात्र डिग्री बना रही है।
राजस्थान के विश्वविद्यालयों में पीएचडी शोधार्थियों की स्थिति पर CAP राजस्थान के हालिया सर्वे ने उच्च शिक्षा तंत्र की वास्तविकता उजागर की। इसमें यूनिवर्सिटी ऑफ राजस्थान, जयपुर; महाराजा सूरजमल बृज विश्वविद्यालय (MSBU), भरतपुर; पंडित दीनदयाल उपाध्याय शेखावाटी विश्वविद्यालय (PDSU), सीकर; मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय (MLSU), उदयपुर; और बनस्थली विद्यापीठ, टोंक शामिल हैं।
शोध से ज़्यादा नौकरी की चाह
राज्य में शोध और अकादमिक प्रशिक्षण में गंभीर खामियाँ हैं। पीएचडी अब शोधार्थियों के लिए करियर, आर्थिक संघर्ष और मानसिक दबाव का प्रतीक बन गया है। सर्वे में 48% से अधिक शोधार्थी पीएचडी को नौकरी व सामाजिक प्रतिष्ठा के साधन के रूप में देखते हैं, जबकि रिसर्च उनकी प्राथमिकता से पीछे है।
समय में देरी और अधूरा शोध
पीएचडी गाइड के साथ संबंधों पर 62% शोधार्थी संतुष्ट थे, 17.5% असंतुष्ट और बाकी मिश्रित। कुछ विश्वविद्यालयों में पर्यवेक्षक शोध को दिशा देते हैं, लेकिन कई जगह यह औपचारिकता बन जाता है, जिससे देरी, मनोबल गिरावट और अधूरे शोध होते हैं।
शोध सुविधाओं में भी निराशा
79% शोधार्थी अपनी यूनिवर्सिटी से पीएचडी न करने की सलाह देते हैं। MSBU, भरतपुर के 61% ऐसा ही कहते हैं। पुस्तकालय में सामग्री की कमी, पत्रिकाओं-डेटाबेस का अभाव और सेमिनारों की अनुपलब्धता प्रमुख कारण हैं, जिससे शोधार्थी बाहरी संसाधनों पर निर्भर होकर समय-धन बर्बाद करते हैं।
छात्रवृत्ति की कमी, नौकरी की मजबूरी
आर्थिक सहायता में भी चुनौतियाँ: 48% को UGC/CSIR से मदद मिलती है, 8% को राज्य/विश्वविद्यालय से, जबकि 43% को कोई सहायता नहीं। छात्रवृत्ति व संसाधनों की कमी से कई पार्ट-टाइम नौकरियाँ करने को मजबूर हैं। जब दुनिया नवाचारों व रिसर्च में निवेश कर रही है, वहीं हमारे संस्थानों के रिसर्च विभाग बद से बदतर हो रहे हैं। यह दिशाहीनता है, जिसे सरकार नजरअंदाज कर रही है।
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