अंता उपचुनाव सिर्फ एक स्थानीय चुनाव नहीं है, बल्कि यह कई नेताओं के लिए भविष्य की राह और द्वंद में फंसा इम्तिहान है. अंता सीट का ट्रैक रिकॉर्ड भी ऐसा है कि यहां लगातार दो बार कोई पार्टी नहीं जीत पाई. इस क्षेत्र को बपौती समझने वाली पार्टी और नेताओं को सबक मिला है. गुटबाजी, सामाजिक समीकरण, टिकाऊ चेहरों का मोह और भ्रष्टाचार के आरोप-तिलिस्म, ये सभी इस उपचुनाव में एक साथ टकरा रहे हैं.
कांग्रेस के लिए यह न केवल 2023 में हारी सीट वापस लेने का सवाल है, बल्कि आंतरिक खेमेबंदी की असली कसौटी भी बन गया है. टिकट के ऐलान के बाद सुगबुगाहट इस बात की है कि आखिर भाया को टिकट किसकी वजह से मिला? क्या सिर्फ इसलिए कि वो पार्टी के पुराने वफादार है या इसलिए कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा का यह दमखम का नतीजा है या फिर अशोक गहलोत का जादू चल रहा है या सचिन पायलट खेमा यहां ज्यादा सक्रिय नहीं था.
भाया को टिकट, पायलट खेमे में हलचल
जब प्रमोद जैन भाया को टिकट मिला तो एक तरफ कांग्रेस आलाकमान की रणनीति दिखी, दूसरी तरफ सचिन पायलट के बयान ने उनके कई पुराने समर्थकों खासतौर पर नरेश मीणा खेमे को खुले तौर पर नाराज कर दिया. जिस मीणा-गुर्जर समीकरण के बूते पायलट को ताकत मिलती है, उसमें नरेश मीणा नुकसान पहुंचाने की कोशिश में है. सोशल मीडिया पर नरेश मीणा के समर्थक ने तो यहां तक लिख दिया-“सचिन पायलट ने मुट्ठी भर बाजरे के लिए 2028 की बादशाहत खो दी?” यह टिप्पणी उस बेचैनी का प्रमाण है, तेजतर्रार युवा और स्थानीय नेतृत्व टिकट वितरण को लेकर खुद को हाशिये पर महसूस कर रहा है.
भाया की पांचवीं पारी पर सवाल
प्रमोद जैन भाया की यह राजनीति में पांचवीं पारी है. दो जीत, दो हार, और 22 साल से क्षेत्र में मजबूत पकड़—लेकिन क्या सिर्फ ‘स्थिरता’ और ‘पार्टी परंपरा’ के नाम पर बार-बार उन्हीं नेताओं को मौका मिलता रहेगा? कांग्रेस का यह फैसला इसी बात पर स्थानीय असंतोष को और बढ़ा रहा है. ठीक इसी वजह से अगर भाया हारते हैं तो पायलट खेमे के लिए बिना लड़े ही बहस का किरदार मिल जाएगा. अगर जीतते हैं तो जयपुर का मैसेज जाएगा कि “संकट में भी पुराने नामों पर ही भरोसा है.”
बीजेपी का गणित अंदर से ज्यादा उलझा हुआ है. अंता की राजनीति वसुंधरा राजे के इर्द-गिर्द घूमती रही है. हर बार वही समीकरण- वसुंधरा राजे, बेटे दुष्यंत सिंह की पसंद और कैंडिडेट की टिकट. इस बार भी भाजपा सीधे-सीधे बाहरी नेतृत्व के भरोसे बैठी है. कंवरलाल मीणा की सदस्यता रद्द और जेल जाना एक तरफ सहानुभूति फैक्टर जैसा दिखाया जा रहा है, दूसरी तरफ यह दल का नैतिक संकट भी है- क्या जेल गए विधायक की पत्नी को सपोर्ट करना जनता के बीच छवि संकट का कारण नहीं बनेगा? क्या बीजेपी सिर्फ सहानुभूति के आधार पर वोट मांग सकती है? सबसे जरूरी बात यह है कि क्या सीएम भजनलाल शर्मा 2 साल के काम के आधार पर अंता में वोट मांग पाएंगे?
“खाया भाया” तंज अब भाजपा पर भारी?
2023 में पीएम मोदी का “खाया रे, खाया भाया ने खाया” वाला तंज खूब चला था. यह सवाल काफी ट्रेंड हुआ और विपक्ष में बैठी बीजेपी ने भी इसे खूब दोहराया था. लेकिन आज बीजेपी की विडंबना यह है कि जिस तरह से बीजेपी के अपने विधायक खुद दोष सिद्ध होने के बाद जेल में हैं, क्या वैसा नैतिक आक्रोश और नैरेटिव भाजपा दोबारा खड़ा कर पाएगी?