हरियाणा में कुछ ही दिनों के अंतराल में एक आईपीएस अधिकारी और एक एएसआई की आत्महत्या की घटनाएं सामने आईं. ये खबरें सिर्फ आंकड़े नहीं, बल्कि देशभर के पुलिस तंत्र में गहराते तनाव और अवसाद की तस्वीर हैं. वर्दी के पीछे का चेहरा, जिसे हम मजबूत, सख़्त और आदेश देने वाला समझते हैं, अब भीतर से टूटता और अकेला रह जाता है. यह अकेलापन कई बार पुलिसकर्मी को ज़िंदगी से हार मानने के लिए मजबूर कर देता है.
पुलिस को समाज का सबसे मजबूत स्तंभ माना जाता है, लेकिन क्या हमने कभी उसकी दरारों को देखने की कोशिश की है? 14 से 16 घंटे की ड्यूटी, त्यौहारों और रविवार को भी अवकाश नहीं, लगातार ऊपर से दबाव, राजनीतिक आदेशों की मार, परिवार से दूरी ये सब धीरे-धीरे उस वर्दीधारी को अंदर से तोड़ते हैं. मानसिक स्वास्थ्य की समस्या हमारे देश में आज भी टैबू है, लेकिन “वर्दी वाले” के लिए तो यह सोच और भी कठोर हो जाती है.
राजस्थान में भी पुलिसकर्मी मांग करते हैं कि उन्हें ड्यूटी के दबाव के बीच कुछ सहूलियत भी दी जाए, जो असल में उनका अधिकार भी है. प्रदेशभर के थानों में खाली पड़े पदों के चलते काम का अतिरिक्त बोझ भी है. इन्हें भरने के साथ ही सभी पुलिसकर्मियों को वीकली ऑफ दिया जाए और उनकी ड्यूटी आठ घंटे की जाए. साथ ही उन्हें ग्रेड पे का लाभ मिले. पुलिसकर्मियों को टाइम स्केल प्रमोशन और 3600 ग्रेड पे का लाभ मिले. प्रत्येक पुलिसकर्मी को वीकली ऑफ मिले.
यह आंकड़े डराने वाले…!
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक देश में हर साल औसतन 150 से ज्यादा पुलिसकर्मी आत्महत्या करते हैं. अधिकांश मामलों में कारण “तनाव” या “व्यक्तिगत वजह” बताया जाता है, लेकिन इन व्यक्तिगत दुखों के पीछे सिस्टम का दबाव, लंबी ड्यूटी, पदोन्नति में भेदभाव, अफसरों की गैर-वाजिब अपेक्षाएं, वरिष्ठों का व्यवहार छुपा रहता है. हरियाणा के आईपीएस की आत्महत्या यह मिथक तोड़ देती है कि वरिष्ठ अधिकारी सुरक्षित हैं. सच यह है कि हर रैंक पर दबाव बराबर बेकाबू है. प्रशासनिक उलझनों, राजनीतिक दखल और आंकड़ा-उन्मुख शासन ने पुलिस में सेवा की भावना को “संख्याओं की मशीन” बना दिया है.
दशकों से हो रही पुलिस सुधार पर बात
पुलिस सुधारों पर बात दशकों से हो रही है. आयोग की सिफारिशें आज भी फाइलों में धूल फांक रही हैं. 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने सात सुधार निर्देश दिए थे, उनमें से अधिकांश लागू नहीं हुए. मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रकोष्ठ की बात कभी-कभी केवल कागज़ों में नज़र आती है, हकीकत में कभी नहीं.अब वक्त आ गया है कि वर्दी के भीतर के इंसान को भी समझा जाए. जिले में स्वतंत्र ‘Police Wellness Cell’ बने, जहां गोपनीय काउंसलिंग और प्रॉपर मनोवैज्ञानिक सहयोग मिले. 8 घंटे की ड्यूटी लागू हो, नेतृत्व प्रशिक्षण में मानवीय संवेदना को प्राथमिकता दी जाए, राजनीतिक दखल पर सख्त लगाम हो.
समाज को भी पुलिस को सिर्फ एक संस्था नहीं, बल्कि इंसानों का समूह समझना चाहिए जिनकी भावनाएं, परिवार और सीमाएं हैं.हर आत्महत्या सिस्टम का फेल्योर है. जब वर्दीधारी आत्महत्या करता है, तो पूरे शासनतंत्र को आत्ममंथन करना चाहिए. भारत की पुलिस अब अनुशासन और आदेशों की नहीं, बल्कि संवेदना और सुनने की ज़रूरत है. एक थका, टूटा पुलिसकर्मी जनता की सुरक्षा कैसे करेगा? वक्त है कि वर्दी के पीछे छुपे इंसान को भी इंसान की तरह देखा जाए.


