(कॉपी में संपादकीय सुधार के साथ रिपीट)
(इस्माइल अल्बयारक, आस्ट्रेलियन कैथोलिक यूनिवर्सिटी)
सिडनी, 25 जून(द कन्वरसेशन) जब कालजयी किताबों की बात आती है तो हमारे विशेषज्ञ प्रमुख साहित्यिक कृतियों की व्याख्या करते हैं जिन्होंने अक्सर हमारे लिए मार्गदर्शक के रूप में काम किया है। ‘द रिहला’ ऐसी ही एक किताब है, जो महान यात्री इब्न बतूता की उनकी 50 से अधिक देशों की यात्राओं का दस्तावेज है।
इब्न बतूता 24 फरवरी, 1304 को मोरक्को के तंगेर में पैदा हुए थे। अपनी प्रसिद्ध यात्रा पुस्तक ‘द रिहला’ के एक बयान (कानूनी मामले मेरा खानदानी पेशा है) से यह स्पष्ट होता है कि वह एक बौद्धिक रूप से प्रतिष्ठित परिवार से ताल्लुक रखते थे।
रिहला(यात्रा दस्तावेज) के अनुसार, इब्न बतूता मक्का में हज करने के लिए 22 साल की उम्र में 1325 में तंगेर से सफर पर रवाना हुए थे।
हालांकि वह 1349 के आखिरी दिनों में अपने गृह नगर फेज में लौट आए लेकिन आगामी वर्षों में उन्होंने ग्रेनाडा और सूडान समेत विभिन्न क्षेत्रों का अपना सफर जारी रखा। और लगभग 30 सालों की अपनी यात्रा में इब्न बतूता ने 73,000 मील (117,000 किमी.) का सफर किया जो अपने आप में अद्भुत है। यह दूरी आज के समय में 50 देशों को कवर करती है।
इब्न बतूता 1355 में आखिरी बार मोरक्को लौटे और बाकी की जिंदगी यहीं बिताई। लौटने के बाद उन्होंने अपने अनुभवों, टिप्पणियों और उपाख्यानों को अंदालूसी विद्वान इब्न जुज़ाय को लिखवाया जो 1355 या 1356 में पूरा हुआ।
औपचारिक रूप से उनके इस यात्रा दस्तावेज को ‘ए गिफ्ट टू रिसर्चर्स ऑन दी क्यूरियोसिटी आफ सिटीज एंड दी मार्वल्स आफ जर्नी’ नाम दिया गया था जिसे आमतौर पर ‘रिहलात इब्न बतूता’ या ‘रिहला’ कहा जाता है।
एक यात्रा वृत्तांत या भौगोलिक रिकॉर्ड से कहीं अधिक, यह पुस्तक 14 वीं शताब्दी के सामाजिक और राजनीतिक जीवन के बारे में समृद्ध अंतर्दृष्टि प्रदान करते हुए राष्ट्रों की सांस्कृतिक विविधता को पेश करती है।
इब्न बतूता ने स्थानीय जीवन शैली, भाषा बोली, धर्मों, कपड़ों, व्यंजन, छुट्टियों, कलात्मक परंपराओं और लैंगिकता संबंधों के साथ -साथ वाणिज्यिक गतिविधियों और मुद्राओं का विवरण दिया।
इब्न बतूता का सफर कैसे शुरू हुआ
इब्न बतूता को एक सपना आया और उसके बाद वह सफर पर निकल पड़े। इब्न बतूता के अनुसार, मिस्र के अलेक्सांद्रिया के समीप फुवा कस्बे में एक रात उन्हें सपना आया कि वह एक विशाल पक्षी पर सवार होकर मैदानों के ऊपर से उड़ते जा रहे हैं। उसके बाद वह एक अंधेरे से, हरे से देश में उतर जाते हैं।
फज्र की नमाज पढ़ने के बाद उन्होंने शेखों को आजमाने के लिए उन्हें अपना सपना बताया। बाद में शेखों ने हैरानीपूर्वक ये बात बताई कि उन्हें इब्न बतूता के सपने के बारे में पता था। और उन्होंने भविष्यवाणी कर दी कि वह यमन, इराक, तुर्कीये और भारत से होते हुए हज के लिए जाएंगे।
ये वो दौर था जब पश्चिम एशिया मामलुक सल्तनत के अधीन था, अनातोलिया रियासतों में बंटा हुआ था और मंगोल इलखानेत सल्तनत का ईरान, मध्य एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप पर शासन था।
इब्न बतूता ने शुरूआत में उत्तरी अफ्रीका, मिस्र, फलस्तीन और सीरिया होते हुए 1326 में पहला हज किया।
उसके बाद वह इराक, ईरान गए और मक्का लौटे। 1328 में वह पूर्वी अफ्रीका का सफर करते हुए मोगादिशू, मोम्बासा, सूडान और किल्वा (आज का तंजानिया) , यमन, ओमान और अनातोलिया पहुंचे जहां उन्होंने अलान्या, कोन्या, एरजुरुम, निकाया और बुरसा जैसे शहरों का ब्यौरा दर्ज किया।
अनातोलिया( आज का तुर्कीये)के बारे में उन्होंने कहा, ‘‘ ‘लैंड आफ रम’ के नाम से मशहूर यह देश धरती पर सबसे खूबसूरत है। सबसे खूबसूरत और बेमिसाल परिधान पहनने वाले लोग इस देश में रहते हैं और यहां के लजीज खाने की तो बस पूछिए ही मत!’’
चूंकि इब्न बतूता ने ये सब ब्यौरे बोल कर दर्ज करवाए तो यह कहना मुश्किल है कि लिखने वाले ने अपना प्रभाव कितना छोड़ा। एक पढ़ा लिखा व्यक्ति होने के चलते वह बहुत बारीकी से अपनी यात्राओं का ब्यौरा लिखवाते थे।
इब्न बतूता 1333 में दिल्ली पहुंचे, जहां उन्होंने सात साल के लिए सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के तहत एक न्यायाधीश के रूप में कार्य किया। वह जिन भी जगहों पर गए, उनमें से अधिकतर शहरों में उन्होंने स्थानीय महिलाओं से निकाह किया। उनकी बीवियों में साधारण औरतों से लेकर प्रशासनिक तबके से ताल्लुक रखने वाली महिलाएं भी थीं।
सुल्तान का हाथ उनके ऊपर था और वह लंबे समय तक भारत में रहे । अंततः 1341 में उन्हें चीन में राजदूत बनाकर भेज दिया गया। लेकिन 1345 में उनका यह अभियान बाधित हो गया क्योंकि उनका जहाज हिंद महासागर में कलकत्ता (तत्कालीन सदक्वान) के तट के समीप डूब गया। हालांकि वह बच गए लेकिन अपने सारे माल असबाब से हाथ धो बैठे।
इस घटना के बाद वह कुछ समय भारत में ही रहे और श्रीलंका तथा मालदीव की यात्राएं कीं। 1345 में, उन्होंने बंगाल, बर्मा और सुमात्रा होते हुए चीन की यात्रा की, गुआंगज़ौ शहर तक पहुँच गए लेकिन अपनी खोज को दक्षिणी तट तक ही सीमित कर दिया।
अपने गृह देश में उन्होंने कई जगहों पर न्यायाधीश के रूप में काम किया और मोरक्को में इसी पद पर रहते हुए 1368.9 के आसपास उनका इंतकाल हो गया और उन्हें पैतृक शहर तंगेर में ही दफनाया गया।
महिलाओं का दर्जा
इब्न बतूता ने अपने यात्रा दस्तावेजों में लिखा है कि पश्चिमी अफ्रीका में मातृ सत्तात्मक व्यवस्था थी जहां वंशावली मां के परिवार की ओर से तय होती थी। इसी प्रकार तुर्कों में महिलाएं घोड़ों की सवारी करती थीं, कारोबार में सक्रिय भागीदारी रखती थीं और बुर्के से अपने चेहरे को नहीं ढंकती थीं।
मालदीव में सामान्य मुस्लिम महिलाओं से लेकर शासक महिलाएं भी पर्दा नहीं करती थीं। जज के रूप में इब्न बतूता ने बुर्का पहनने की व्यवस्था लागू करने की कोशिश की लेकिन वह विफल रहे।
खान पान की संस्कृति पर भी उन्होंने शानदार ब्यौरा पेश किया है। वह बताते हैं कि साइबेरिया में स्लेज खींचने वाले कुत्तों को इंसानों से पहले भोजन दिया जाता था।
उन्होंने विस्तार से व्याख्या की है कि भारत में कैसे 15 दिन तक शादी का भोज चलता रहता था। उन्होंने भारत में आम और ओमान में सूखी मछली का स्वाद चखा।
इब्न बतूता ने भारत और चीन के बीच मृतकों के दाह संस्कार के रीति रिवाजों में समानता भी बतायी। उन्होंने देखा कि कुछ क्षेत्रों में मरने वाले के साथ ही उसके गुलामों और उसकी रखैलों को जिंदा दफना दिया जाता था।
उनकी विरासत आज भी जीवंत है। मोरक्को ने 1996-1997 को ‘इब्न बतूता का वर्ष’ घोषित किया, और उन्हें सम्मानित करने के लिए तंगेर में एक संग्रहालय की स्थापना की गई। दुबई में, एक मॉल का नाम उनके नाम पर रखा गया है।
यह बात गौर करने लायक है कि इब्न बतूता ने मार्को पोलो से ज्यादा देशों की यात्रा की और विभिन्न संस्कृतियों, सल्तनतों आदि का कहीं अधिक विस्तार से ब्यौरा साझा किया।
द कन्वरसेशन
नरेश माधव
माधव
नरेश
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