भारत-पाकिस्तान बंटवारे की खींची गई कांटेदार सरहद ने न केवल दो देशों को अलग किया, बल्कि सैकड़ों परिवारों के रिश्तों को भी बिखेर दिया। रक्षाबंधन का पवित्र त्योहार, जो भाई-बहन के अटूट स्नेह का प्रतीक है, बाड़मेर के कई परिवारों के लिए अधूरा रह जाता है। पाकिस्तान से विस्थापित होकर भारत आए परिवारों की बहनें आज भी अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधने के अरमान को पूरा नहीं कर पातीं। हर साल रक्षाबंधन पर वे बाजार से राखियां लाती हैं, पूजा की थाली सजाती हैं, लेकिन सरहद की ऊंची दीवार और बंद पड़ी ट्रेनें उनके सपनों को वहीं रोक देती हैं।
बाड़मेर के गेहूं रोड की मिश्री देवी की कहानी भी इन्हीं बिछड़े रिश्तों की दर्द भरी दास्तां है। साल 2013 में उनका परिवार पाकिस्तान के सिंध प्रांत के मीरपुर खास से भारत आया था। तब से लेकर आज तक, यानी पूरे 13 साल, वह अपने चार भाइयों की कलाई पर राखी नहीं बांध पाई हैं। मिश्री बताती हैं— मेरे चार भाई और पांच बहनें पाकिस्तान में हैं। हर रक्षाबंधन पर उनकी बहुत याद आती है। मैं राखियां खरीदकर थाली सजाती हूं, लेकिन आख़िर में आंखें नम हो जाती हैं। मेरी बस यही ख्वाहिश है कि एक दिन मैं अपने भाइयों की कलाई पर अपने हाथ से राखी बांधूं।
मिश्री और अन्य विस्थापित बहनों की एक ही मांग है—थार एक्सप्रेस को फिर से शुरू किया जाए, ताकि वे अपने भाइयों तक पहुंच सकें। पाक विस्थापित संघ के नरपत सिंह धारा कहते हैं—पाकिस्तान से प्रताड़ित होकर आए हिंदू परिवारों की बेटियां, जिनकी शादी भारत में हुई, अपने मायके और भाइयों से मिल नहीं पातीं। नागरिकता कानून ने हमें राहत दी, लेकिन जब तक आवाजाही के रास्ते नहीं खुलते, यह दर्द बना रहेगा।
कभी रिश्तों का पुल मानी जाने वाली थार एक्सप्रेस अब दोनों देशों के बीच बढ़ते तनाव की भेंट चढ़ चुकी है। ट्रेन के पटरी पर लौटने की उम्मीदें भी राजनीतिक परिस्थितियों में उलझ गई हैं। ऐसे में मिश्री जैसी बहनें सिर्फ एक ही आस लगाए बैठी हैं—कि एक दिन सरहद का कांटा हटेगा, और वे फिर से भाइयों के संग रक्षाबंधन का त्योहार मना पाएंगी। तब तक उनकी राखियां, उनके आंसुओं के साथ सहेजी हुई, उस शुभ दिन का इंतजार कर रही हैं, जब प्यार का यह धागा फिर से सरहद पार जाकर रिश्तों को जोड़ सकेगा।
यह भी पढ़ेंः- खैरथल-तिजारा का नाम बदलने पर कांग्रेस का हमला, सरकार पर ध्यान भटकाने का आरोप