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Thursday, August 21, 2025

NCERT के नए मॉड्यूल के बहाने फिर उठा सवाल- विभाजन का जिम्मेदार कौन?

NewsNCERT के नए मॉड्यूल के बहाने फिर उठा सवाल- विभाजन का जिम्मेदार कौन?

NCERT के नए मॉड्यूल में विभाजन के चैप्टर पर सियासत छिड़ गई है और सवाल खड़ा हो गया है कि आखिर जिम्मेदार कौन है? जब भी विभाजन की बात होगी तो राष्ट्रवाद की थ्योरी की चर्चा जरूर होगी. दरअसल, कोई व्यक्ति राष्ट्र की परिकल्पना कैसे करता है, इसी पर निर्भर होता है उसका राष्ट्रवाद. अगर यह राष्ट्रवाद अन्य व्यक्ति को भी समाहित करें तो यह अखंड राष्ट्र की परिकल्पना में साकार होता है, नहीं तो मिलती है सदियों तक दर्द देने वाली विभाजन की एक त्रासदी.

चलिए, शुरू से शुरू करते हैं….

राष्ट्रवाद एक ऐसी विचारधारा, जिसने दुनिया भर में देशों को जोड़ा भी और तोड़ा भी. जिसमें व्यक्ति की राष्ट्र-राज्य के प्रति निष्ठा और समर्पण अन्य सभी व्यक्तिगत या समूह हितों से अधिक महत्वपूर्ण होती है. 18वीं सदी में आधुनिक यूरोपीय इतिहास से शुरू हुआ राष्ट्रवादी आंदोलन पूरी दुनिया में देखते ही देखते फैल गया. राष्ट्र एक ऐसी सामाजिक इकाई, जिसकी पहचान साझा भाषा, संस्कृति, इतिहास और अक्सर एक भूगोल से होती है, जबकि राज्य का आधार औपचारिक संस्थाएं, कानून, सीमाएं और राजनीतिक संप्रभुता हैं. कई बार एक राष्ट्र विभिन्न राज्यों में फैला होता है तो कभी किन्हीं राज्यों में विभिन्न राष्ट्र भी शामिल होते हैं.

राष्ट्रीयता और राजनीतिक स्वतंत्रता

राष्ट्रवादी विचारों के लिए जीन-जैक्स रूसो ने लोगों की सामूहिक इच्छा और संप्रभुता को राष्ट्रीय सत्ता का आधार बताया, जबकि माजिनी ने स्वतंत्रता, लोकप्रिय संप्रभुता और साझा पहचान पर जोर दिया. राष्ट्रवाद पर बात करते हुए एंडरसन का मानना है कि राष्ट्र एक ‘कल्पित समुदाय’ (imaginary community) है, जिसमें साझा प्रतीक और संकृति महत्वपूर्ण हैं. एर्नेस्ट गेलनर ने राष्ट्रवाद को औद्योगिक क्रांति और सांस्कृतिक समरूपता की मांग से जोड़ा. जॉन टस्टुअर्ट मिल ने राष्ट्रीयता और राजनीतिक स्वतंत्रता के संबंधों की चर्चा की.

अहिंसक राष्ट्रवाद की विचारधारा

हालांकि इन सबसे अलग, भारतीय संदर्भ में, राष्ट्रवाद के उदय को लेकर भारतीय और पश्चिमी विद्वानों में मतभेद रहे हैं. जैसे एंडरसन का कहना है कि ब्रिटिश शासन, प्रिंट-कल्चर और रेलवे राष्ट्रवाद के विस्तार में प्रमुख रहे. जबकि गांधी ने राष्ट्रवाद को अहिंसक विचारधारा से जोड़ा और टैगोर ने राष्ट्रवाद को एक हिंसक टूल बताया. के रूप में देखा. शेखर बंद्योपाध्याय और क्रिस्टोफर जैफ्रेलॉट जैसे विद्वानों ने औपनिवेशिक शोषण और स्वतंत्रता आंदोलन को भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में सबसे महत्वपूर्ण माना.

नफरत से ऊपर सच्चा राष्ट्रवाद

विनोबा भावे का मानना था कि भारत का राष्ट्रवाद केवल भारत की सीमाओं तक ही नहीं होना चाहिए, बल्कि उसमें समग्र विश्वकल्याण की भावना भी शामिल हो. उनके राष्ट्रवाद में अहिंसा, दया, करुणा, और सत्य के मूल्य सर्वोपरि थे. वे ऐसी चेतना चाहते थे, जिसमें सीमाएं बंधन न रहें और सबका भला सोचा जाए. उनका विचार था कि सच्चा राष्ट्रवाद संकुचित विचारों और नफरत की भावना से ऊपर होना चाहिए.

राष्ट्र एक परिवार, सेवा और मानवता सर्वोपरि

वे विभाजन, सांप्रदायिकता, और राजनीतिक स्वार्थ के राष्ट्रवाद के विरोधी थे. विनोबा के अनुसार, भारत का राष्ट्रवाद तभी सार्थक हो सकता है, जब वह पूरे विश्व में मानवता, शांति और अहिंसा का संदेश दे. उनका राष्ट्रवाद न तो संकीर्ण था, न राजनीतिक स्वार्थ पर टिका; बल्कि उसमें नैतिक, आध्यात्मिक और सार्वभौमिक प्रेम का भाव था. वे राष्ट्र को एक बड़े परिवार की तरह देखते थे, जिसमें अहिंसा, सेवा और मानवता सबसे ऊपर थी.

गांधी, नेहरू, पटेल का समावेशी नेतृत्व

गांधी, नेहरू, पटेल जैसे नेताओं के नेतृत्व में स्वतंत्रता आंदोलन मुख्यधारा में धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी, और सबकी भलाई की कल्पना प्रस्तुत करता था, जिसमें भारत एक सिर्फ हिंदुओं या मुसलमानों का राष्ट्र नहीं, बल्कि सबका था. इसके साथ ही जातीय राष्ट्रवाद भी उभरा, जिसमें सांस्कृतिक पहचान को बचाने की कोशिश की गई. बुद्धिजीवियों के एक समूह ने अतीत के ‘स्वर्णिम’ इतिहास को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, ताकि औपनिवेशिक प्रभावों का सामना किया जा सके.

सावरकर और ‘हिंदुत्व’

वहीं, हिंदू राष्ट्रवाद के निर्माण की प्रक्रिया मुख्य रूप से 1870–1920 के बीच आर्य समाज और अन्य उच्च जाति हिंदुओं के आंदोलनों में दिखी. 1920 के दशक में खिलाफत आंदोलन के प्रभाव और मुसलमानों की लामबंदी से हिंदू महासभा व आरएसएस जैसे संगठन उभरे. विनायक दामोदर सावरकर की पुस्तक ‘हिंदुत्व’ (1923) हिंदू राष्ट्रवाद का मौलिक ग्रंथ मानी गई, जिसमें हिंदुओं के असुरक्षित होने और राष्ट्र की रक्षा की चिंता प्रमुख थी.

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