कभी रेगिस्तान में सुनहरी रेत सी उम्मीद चमकी थी, लेकिन वो रेत धीरे- धीरे फीकी होने की आशंका से गुजर रही है। इसके लिए वो लगातार आंदोलन का झंडा भी बुलंद करता है, लेकिन रह- रहकर सत्ता के करीब जाने की भी कोशिश करता है। रविन्द्र भाटी, जिस युवा की राजनीतिक तकदीर में ‘निर्दलीय’ शब्द भी जुड़ सा गया। भाटी ने पश्चिम राजस्थान में प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय (जेएनवीयू) में छात्र राजनीति से अपनी राजनीतिक यात्रा शुरू की, एबीवीपी के टिकट से इनकार के बाद, उन्होंने स्वतंत्र रूप से चुनाव लड़ा और जीत भी।
जेएनवीयू के 57 साल के इतिहास में पहली बार कोई छात्रनेता स्वतंत्र चुनाव जीता, लेकिन बीजेपी या संघ परिवार से भाटी की निष्ठा खत्म नहीं हुई। इसी निष्ठा के चलते वो राजनीतिक के भंवर जाल में फंसे हुए नजर आते हैं। जब यूनिवर्सिटी से बाहर निकले और चुनावी मैदान में हाथ आजमाने की सोची तो भी उन्हें पहली सीढ़ी बीजेपी ही नजर आई। ये और बात है कि बीजेपी ज्वॉइन करने के बाद जब उन्हें टिकट नहीं मिला तो बागी होकर चुनाव लड़ गए, लेकिन शिव विधानसभा से टिकट घोषणा होने तक वो कर्तव्यनिष्ठ भाजपाई के तौर पर ही साल 2023 के चुनाव के लिए मेहनत कर रहे थे।
निर्दलीय होते हुए भी सत्ता पक्ष के करीब दिखे भाटी
बरहाल, जब टिकट का ऐलान हुआ तो बीजेपी और कांग्रेस दोनों में बगावत के बाद मुकाबला पंचकोणीय हुआ और जीत रविन्द्र भाटी की हुई, वो भी महज 3950 वोट के अंतर से, हालांकि मैदान में दोनों पार्टी के कई दिग्गजों को उन्होंने शिकस्त दी। पार्टी भले ही उन्होंने ज्वॉइन नहीं की, लेकिन बतौर निर्दलीय वो विधानसभा में सत्ता पक्ष से यह कहते नज़र आए कि मैं तो आपका ही हूं।
मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा के साथ बैठकों की उनकी तस्वीर की भी खूब चर्चा होती है। डिप्टी सीएम दिया कुमारी और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी सार्वजनिक मंचों से उनकी तारीफ करते नहीं चूकते। वो खुद को युवा राजनीति की ‘Fantasy Politics’ में तो खुद को ढाल लेते हैं, लेकिन बतौर विचार वो खुद को पेश नहीं कर पाए। तीसरे (निर्दलीय) विकल्प के तौर पर सदन में तो पहुंचे, लेकिन बीजेपी से वो कहीं ना कहीं करीब ही दिखे।
दो हैंडपंप वाला पत्र वायरल
भाटी ने जल्द ही नज़रें शिव विधानसभा क्षेत्र पर टिकाईं और टीम तैयार करते हुए सामाजिक कार्यक्रम किए और जनता के बीच पैठ बनाई। 2023 का विधानसभा चुनाव जीतने के बाद कुछ ही महीनों में उनके लोकसभा चुनाव लड़ने की महत्वाकांक्षा को पंख मिल गया। उनकी विधानसभा को जब दो हैंडपंप नहीं मिले तो उनका सरकार को लिखा “दो हैंडपंप वाला पत्र” भी खूब वायरल हुआ और उन्होंने खुद को उपेक्षित जनप्रतिनिधि के तौर पर पेश किया, लेकिन इन सबके बीच लोकसभा चुनाव 2024 की पटकथा लिखी जा रही थी।
लोकप्रियता और भारी जनसमर्थन के साथ लोकसभा चुनाव में 5.86 लाख वोट मिले और पूर्व केंद्रीय मंत्री कैलाश चौधरी की बुरी हार हुई, हालांकि इस दौरान फायदा उम्मेदाराम बेनीवाल को हुआ और उनकी जीत हुई। उनका ठेठ राजनीति स्टाइल लोगो में खूब पसंद किया गया. लेकिन उन दो हैंडपंप समेत विधानसभा क्षेत्रों के काम की बात नहीं हुई, जिसके रुकने के लिए वो सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए लोकसभा चुनाव में छाती ठोंक रहे थे.
आंदोलन के पीछे पर्दे की कहानी
राजनीति में कोई अचानक नहीं चमकता, हर चमक के पीछे संघर्ष, साहस और जोखिम की लंबी दास्तान होती है। इस कहानी में कई किरदार और भारी धनबल भी दिखा। जब चुनाव लड़ने उतरे तो प्रचार के दौरान ‘मास्टरजी का लड़का हूं’ कहते भी नजर आए उनके साथ लग्जरी गाड़ियों का लंबा काफिला भी रहा। अब वो लगातार आंदोलन भी कर रहे हैं। सोलर प्लांट के विरोध में आंदोलन कर रहे भाटी ने खूब सुर्खियां बटोरी। हालांकि आलोचक इसमें उनके हित जुड़े होने की बात कहते हैं। क्योंकि सोलर प्लांट लगने के साथ ही कई स्थानीय फर्म या छोटी कंपनियों का हित भी इससे जुड़ता है।
छात्र राजनीति से अब तक लिखे कई कामयाबी के किस्से
आरोप तो ऐसे भी हैं कि इन कामों में भाटी के परिवार के किसी सदस्य की कंपनी का भी नाम होने की संभावना जताई जाती है, ताकि कंपनी के जरिए हित पूरे हो सके, लेकिन जो भी हो, थार के रेतीली धोरों में हाथ से सरकते रेत जैसे समय को भाटी ने हर बार बखूबी भांपा है और छात्र राजनीति से अब तक कामयाबी के कई किस्से लिखे। ये भी हकीकत है कि राजस्थान में अक्सर निर्दलीय या तीसरे मोर्चे की कोशिश हुई, लेकिन वो सत्ता के दरवाजे पर जाकर ही ठहर जाती है। ऐसे में भाटी नई पार्टी बनाते हैं या नहीं, ये भी देखने वाली बात होगी।
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