राजस्थान विधानसभा का मानसून सत्र भी खत्म हो गया। लेकिन, आप किसी थोड़े से भी जागरूक नागरिक से यह पूछें कि इस सत्र में क्या प्रोडक्टिव हुआ? तो शायद आपको हंगामे और हो हल्ला की अख़बारी खबरों की कतरनों से पढ़ी लाइनों के अलावा कोई जवाब मिल सके। विधानसभा सत्र कानून बनाने के लिए बुलाये जाते हैं। जनता के मुद्दों, उनकी समस्याओं, प्रदेश के भविष्य की रचना करने के लिए सर जोड़ कर बैठने के लिए कॉल किये जाते हैं, लेकिन क्या इन सबका वही हासिल है, जिसकी उम्मीद और जिस वजह से प्रदेश के सारे जनप्रतिनिधि इकट्ठा होते हैं?
1 से 10 सितम्बर 2025 तक चले इस सत्र में 10 बिल पास हुए, लेकिन कौन जानता है कि उन कानूनों में क्या है? क्योंकि इन बिलों पर सदन में कोई चर्चा ही नहीं हुई। देश के सबसे बड़े प्रदेश में सत्ता और विपक्ष ने मिल कर जवाबदेही, ज़िम्मेदारी और लोकतंत्र का ऐसा मज़ाक बनाया कि महज़ 33 मिनट में 9 करोड़ लोगों के लिए 3 क़ानून पास कर डाले। राजस्थान विनियोग विधेयक-2025, राजस्थान वस्तु एवं सेवा कर विधेयक-2025 और महिलाओं को कारखानों में नाइट शिफ्ट में काम करने की अनुमति देने वाला फैक्ट्रीज़ विधेयक-2025 पर सिरे से कोई डिस्कशन ही नहीं हुआ।
शायद लॉ-मेकर्स ने यह समझ लिया है कि ब्यूरोक्रेट्स से क़ानून का ड्राफ्ट बनवा कर पास करवा दो, लेकिन वह क़ानून जनता के लिए कितना उपयोगी है, इस बात पर सिरे से पूरा विमर्श ही ग़ायब है। हद तो यह है कि विधानसभा में नए कैमरा लगने की बात पर विपक्ष ने वॉक आउट कर दिया। और सत्ता? उसने भी माहौल का फायदा उठा कर धड़ाधड़ कचौरी की तरह क़ानून छान दिए. पूरा असेंबली हॉल गली नुक्कड़ की तू तू-मैं-मैं बन गया।
क़ानून बनते हैं, लेकिन जनता का हित?
जब भी कोई नया क़ानून बनाया जाता है या पुराने में संशोधन किया जाता है, तो उसकी ज़रूरतें ध्यान में रखीं जाती हैं। या फिर किसी समस्या के समाधान या लगाम लगाने के लिए क़ानूनों का निर्माण होता है, लेकिन इस सत्र में ऐसे बिल भी लाये गए जिनको लाने के पीछे जनता का हित ग़ायब दिखा। सरकार ने Anti-Conversion बिल को ‘जबरन धर्म परिवर्तन’ रोकने के मक़सद से पेश किया, पर सरकार के अपने दावे बताते हैं कि राज्य में लव जेहाद या जबरन धर्मांतरण जैसे मामले दर्ज ही नहीं हैं। फिर भी बिल में भारी सज़ाएँ, DM-inquiry जैसे प्रशासनिक अधिकार और अनिवार्य प्री-नोटिफिकेशन जैसी व्यवस्थाओं को शामिल किया गया।
आत्महत्या जैसी गंभीर समस्याएं अनसुलझी
कोचिंग सेंटर रेगुलेशन बिल इसका अगला उदाहरण है। सरकार का दावा है कि यह छात्रों के हित में है, लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? विशेषज्ञों और विश्लेषकों का कहना है कि यह बिल संस्थानों को ज्यादा सुरक्षा देता है, जबकि छात्रों की फीस, मानसिक दबाव और आत्महत्या जैसी गंभीर समस्याओं पर ठोस समाधान नहीं लाता। सवाल यह है कि क्या इस कानून का असली मक़सद छात्रों की सुरक्षा है या संस्थानों पर महज़ दिखावटी लगाम लगाना?
असल समस्या यही है कि चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, दोनों ने विधानसभा को गंभीर विमर्श का मंच नहीं बनाने की पूरी कोशिश की और इसका नतीजा यह हुआ कि छात्रों, आम नागरिकों, महिलाओं और अल्पसंख्यक समुदायों को सीधे प्रभावित करने वाले कानून ऐसे पास हो गए जैसे किसी बोर्डरूम की मीटिंग हो।
वेबसाइट पर सवाल-जवाब अब भी गायब
इसके अलावा, जवाबदेही और अपनी ज़िम्मेदारी से ग़फ़लत का आलम यह कि पिछले 3 सत्रों में विधानसभा में सरकार से पूछने के लिए 11000 सवाल लगाए गए, उनमें से केवल 1300 सूचीबद्ध हुए और सदन के भीतर उनमें से महज़ 6 फीसदी जवाब ही दिए गए। बाक़ी के सवालों को या तो गोलमोल कर दिया गया या फिर वो डाक से विधायक आवास भेज दिए गए। सवाल यह कि क्या विधानसभा में पूछे गए सवाल और उनके जवाब जनता के सामने नहीं आने चाहिए? विधानसभा तो जनता की ही पंचायत है, लेकिन ऐसा नहीं होता। हालत यह कि इस मानसून सत्र के सवाल जवाब अभी तक विधानसभा की वेबसाइट पर उपलब्ध नहीं हैं।
सदन में हंगामे और धरने आम
अगर विधायकों द्वारा पूछे गए सवालों का नेचर और संबंधित क्षेत्र देखा जाए तो लगेगा ‘पढ़ते जा शर्माते जा’। ऐसे सवालों की एक लंबी फहरिस्त है, जिनका सीधा जनता से कोई लेना देना तक नहीं होता। उनमें जनहित की जगह नेताहित समाहित रहता है। लोकतंत्र के मज़बूत बने रहने के लिए सर्वाधिक ज़रूरी होता है, जनता का पार्टिसिपेशन। लेकिन सवाल यह कि क्या क़ानून बनाने ने पहले क्या पब्लिक ओपिनियन की बिलकुल भी ज़रूरत नहीं? क्या हंगामों, धरनों और सदन न चलने देने की यह ‘परम्परा’ रुक पाएगी? कहीं यह लोकतांत्रिक संस्था एक रबर स्टाम्प और ड्रामों की जगह तो नहीं बन जायेगी?
यह भी पढ़ें: भाटी आपकी पॉलिटिक्स क्या है? ये सवाल शायद रविन्द्र भाटी से पूछा जाना चाहिए