साल 2014 में जब नरेंद्र मोदी पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने, तब संसद में उन्होंने अपनी पीठ थपथपाते हुए कहा था कि मेरे विरोधी चाहे मेरा जितना भी विरोध करते हों, लेकिन मेरी राजनीतिक सूझबूझ के तो वो क़ायल होंगे ही, और इसी लिए वो मनरेगा योजना को बंद नहीं करेंगे, ताकि लोगों को पता चल सके की कांग्रेस की यह कितनी बड़ी विफलता थी। वो अलग बात है कि मनरेगा आज भी जारी है, लेकिन उसकी हालत अन्य सरकारी योजनाओं की तरह जंग खा चुकी है। क्या ऐसा यूं ही हो गया या जानबूझ कर किया गया? यह सवाल बार-बार उठता रहता है।
मनरेगा यानी महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून, साल 2005 में शुरू किया गया था। इसके तहत हर ग्रामीण परिवार को, अगर वे मेहनत वाला साधारण काम करने को तैयार हों, तो साल में 100 दिन तक मज़दूरी करने का हक़ मिलता है। इसका मक़सद गाँव के लोगों की रोज़ी-रोटी सुरक्षित करना और गाँव में टिकाऊ काम जैसे सड़क, तालाब, नाली वगैरह बनाना था। राजस्थान के संदर्भ में बात करें तो इसमें दिन प्रतिदिन गिरावट ही आ रही है।
ग्रामीण आज भी काम के लिए कर रहे डिमांड
ग्रामीण विकास मंत्रालय के खुद के आंकड़ें बताते हैं कि वित्तीय वर्ष 2025-26 के जून तक राजस्थान में सिर्फ़ 9.71 करोड़ मानव-दिवस ही सृजित हो पाए, जो पिछले साल इसी अवधि में बने 13.99 करोड़ मानव-दिवस की तुलना में काफ़ी कम है। तो क्या लोग अब नरेगा में काम नहीं करना चाहते? क्योंकि काम के दिनों में कमी तो ऐसा ही इशारा करती है, लेकिन ऐसा भी नहीं है।
ग्रामीण अंचलों में आज भी लोग काम की डिमांड कर रहे हैं। लिबटेक इंडिया की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि वित्तीय साल 2024-25 में काम के लिए पंजीकरण करवाने वाले परिवार की तादाद में 8.6 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई, लेकिन काम के दिनों में 15.9 फ़ीसदी की कमी आ गई। अफ़सोस की बात है कि राज्य में सिर्फ़ करीब 7 फ़ीसदी परिवार ही साल के 100 दिन का काम पा सके, जबकि क़ानून के हिसाब से हर परिवार को 100 दिन के काम की गारंटी है।
पिछले साल का बजट 27 करोड़, इस साल आधे से भी कम
इससे साफ़ झलकता है कि काग़ज़ पर दिए गए अधिकार और ज़मीन पर मिलने वाले काम में बड़ा फ़ासला है और यह भी सच है कि जब सरकार किसी योजना के दांत तोड़ना चाहती है तो सबसे पहले उसका प्रहार बजट पर होता है. और यही हुआ। सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि वित्तीय वर्ष 2025-26 के लिए स्वीकृत लेबर बजट सिर्फ 12.5 करोड़ पर छोड़ दिया जबकि पिछले वित्तीय वर्ष 2024-25 की शुरूआती महीनों से भी काम है। पिछले वित्तीय वर्ष 2024-25 में पूरे वित्तीय वर्ष के अंत तक लेबर बजट 27 करोड़ था। जिसे इस साल आधे से भी कम कर दिया गया।
बेरोज़गारी बढ़ी, रोज़गार स्कीम ढीली
मज़दूरों के लिए काम करने वाले संगठन तो यह भी आरोप लगाते हैं कि इतना बजट कम करने के बाद भी, जो बजट स्वीकृत किया जाता है, उसमें से भी 60 फीसदी तो खर्च ही नहीं होता। गांवों से यह शिकायतें खूब आती हैं कि न तो वक़्त पर मज़दूरों को उनका पेमेंट मिलता है और न ही काम तय है। गांव के सचिव से जब पेमेंट की मांग की जाती है तो वो कहते नज़र आते हैं कि ‘बजट नहीं है’।
सवाल यह है कि जब बेरोज़गारी की दर प्रदेश में बढ़ रही है। राजस्थान सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी दर वाले राज्यों में शुमार है, तब भी सरकार लोगों को रोज़गार देने में इतनी लापरवाही क्यों कर रही है? ग्रामीण इलाकों में रोज़गार की यह सबसे बड़ी स्कीम क्या ‘राजनीतिक क्रेडिट’ की लड़ाई की भेंट चढ़ जायेगी? यह वो सवाल हैं जो आज भी जवाब मांग रहे हैं।