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Wednesday, October 8, 2025

‘पूरब की पहरेदारी’ और किरोड़ी लाल मीणा बनाम नरेश मीणा की लड़ाई में सचिन पायलट की इतनी चर्चा के मायने क्या हैं?

OP-ED‘पूरब की पहरेदारी’ और किरोड़ी लाल मीणा बनाम नरेश मीणा की लड़ाई में सचिन पायलट की इतनी चर्चा के मायने क्या हैं?

किरोड़ी लाल मीणा का पूरा राजनीति करियर नरेश मीणा की आज की सियासी स्टाइल का अक्स दिखेगा। पूर्वी राजस्थान में इस तर्ज़ की सियासत की शुरुआत किरोड़ी लाल मीणा ने ही की थी। जब तक वो अपने चरम पर थे, तब तक उनके समानांतर कोई नेता इस अंदाज़ का अपना नहीं पाया। कुछ ने कोशिश भी की, लेकिन वो सीमित दायरे में ही सिमट कर रह गए।

लेकिन इस ज़िद, भिड़ंत, साम-दाम-दंड की राजनीति का हासिल क्या है? इसका जवाब ढूँढने पर यह मिला कि इसका सबसे बड़ा हासिल है ‘जनाधार की आत्मनिर्भरता’। यह जनाधार किसी विचारधारा और पार्टी से बिल्कुल अलग एक नेता की छवि से गढ़ा जाता है। जिसे इन दिनों राजनीतिक भाषा में ‘संघर्ष’ कहा जाता है। राजस्थान की सियासत की बड़ी संस्था प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इसे ‘रगड़ाई’ का नाम देते हैं।

नरेश मीणा, किरोड़ी लाल मीणा के शिष्य रहे हैं और उनकी ‘विरासत’ को लगभग छीनने की कोशिश कर रहे हैं, बिल्कुल उन्हीं की स्टाइल में। मीणा समुदाय को हमेशा एक मज़बूत और वोकल नेता की ज़रूरत रही है, जो प्रदेश की हर सीट पर अपना दबदबा क़ायम रखने का माद्दा रखता हो। जो चाहे कुछ करे ना करे, लेकिन उसमें ‘भिड़’ जाने की क़ुव्वत हो।

नया ‘किरोड़ी’ बनने का डर सताता है कांग्रेस को

इन दिनों सोशल मीडिया पर सचिन पायलट के नरेश मीणा का साथ ना देने की बहस जारी है। लेकिन यह बहस बिल्कुल ऊपरी है। 15 दिन तक आमरण अनशन पर बैठे नरेश मीणा से मिलने पायलट क्यों नहीं गए? इसकी पायलट के पास राजनीतिक मजबूरी भी है, उसका ज़िक्र आगे, लेकिन एक और वजह पूर्वी राजस्थान में एक और किरोड़ी के पैदा होने का डर भी है।

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जेल में नरेश से मुलाकात या समाज को संदेश?

यह लड़ाई सीधे-सीधे किरोड़ी लाल मीणा बनाम नरेश मीणा है। समरावता में उपचुनाव के बाद हुई हिंसा के बाद किरोड़ी लाल मीणा वहां पहुंचे थे। उसके बाद वो नरेश मीणा से मिलने जेल भी गए। किरोड़ी पर ‘समाज’ का भारी दबाव था। अपने ही समाज में ज़मीन खिसकने की चिंता थी। इसके बावजूद नरेश मीणा के समर्थक किरोड़ी लाल मीणा पर ‘वादाखिलाफ़ी’ करने का आरोप लगाते रहे हैं। वो कहते रहे हैं ‘किरोड़ी सरकार के साथ मिलकर काम कर रहे हैं, उनकी कथनी और करनी में अंतर है।’

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डूंगरी बांध विवाद में भी घिरते किरोड़ी

डूंगरी बांध मामले में भी लोग किरोड़ी पर सरकार के साथ काम करने का आरोप लगा रहे हैं। डूंगरी बांध प्रभावित लोगों में से सबसे ज़्यादा मीणा और गुर्जर समुदाय के लोग हैं। किरोड़ी लाल मीणा के सामने बड़ी दुविधा है कि वो सरकार के साथ रहें या फिर अपनी ‘रॉबिनहुड’ की छवि को बरक़रार रखें। यह दुविधा तब और बढ़ जाती है, जब उन्हें व्यक्तिगत तौर पर बड़ी चुनौती का सामना हो।

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मीणाओं ने पायलट को सिर आंखों पर बिठाया

नरेश मीणा के बहाने सचिन पायलट और गुर्जर समुदाय को टारगेट करने के पीछे की वजह बिल्कुल साफ़ है, वो यह कि मीणा-गुर्जर समुदाय का साथ आना। मीणा और गुर्जर समुदाय को राजनीतिक पंडित ‘प्रतिद्वंदी’ के तौर पर पेश करते हैं। लेकिन 2007 में आरक्षण आंदोलन के समय बनी खाई को छोड़ दें तो इस ‘प्रतिद्वंद्विता’ की जड़ें गहरी नहीं हैं। यह टकराव जाट और राजपूतों से काफ़ी लग है। राजेश पायलट का राजनीतिक उत्थान दौसा से ही हुआ, जहां मीणा समुदाय सबसे अधिक है। हां, यह ज़रूर है कि परंपरागत तौर पर मीणा कांग्रेस और गुर्जर भाजपा के मतदाता रहे हैं।

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गुर्जर-मीणा प्रभाव वाली 29 सीटें भाजपा के खाते में

राजस्थान में 40 गुर्जर प्रभाव वाली सीटों में से 16 सीटें ऐसी हैं, जहां मीणा आबादी भी निर्णायक भूमिका निभाती है। 2008 में कांग्रेस ने इन सीटों पर बढ़त बनाई थी और 16 में से 6 सीटें जीती थीं। लेकिन समग्र तौर पर भाजपा गुर्जर प्रभाव वाली सीटों में आगे रही थी और 40 में से 18 सीटें उसके खाते में गईं। 2013 में तस्वीर पलटी। इस बार भाजपा ने गुर्जर-मीणा प्रभाव वाली सीटों पर दबदबा बनाया और 16 में से 10 सीटें उसके खाते में गईं, जबकि कुल मिलाकर 40 में से 29 सीटों पर जीत मिली।

2023 में समीकरण फिर पलटे, कांग्रेस को झटका

2018 में समीकरण फिर बदले। जब गुर्जर और मीणा, दोनों समुदाय कांग्रेस के साथ खड़े हुए, तो पार्टी ने इन 16 में से 11 सीटों पर जीत दर्ज की और कुल 40 में से 24 सीटों पर कब्ज़ा कर लिया। लेकिन फिर पासा पलटा और 2023 के चुनाव में कांग्रेस ने 10 गुर्जर चेहरों को टिकट दिया जिसमें से सचिन पायलट और अशोक चांदना समेत सिर्फ 3 उम्मीदवार ही चुनाव जीत पाए. और पूरे इलाके में से इस बार हालात उलट गए, और सीटों की संख्या 25 से घटकर 17 रह गई। और कांग्रेस के 10 मंत्री इस क्षेत्र से चुनाव हार गए। भाजपा यह अच्छी तरह जानती है कि परंपरागत मतों का छिटकना उसे सत्ता से बाहर कर सकता है। और इसी लिए कहीं ना कहीं साल एक खाई बनाने की जद्दोजहद है।

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