राजस्थान के बड़े शहरों जयपुर, उदयपुर और कोटा के विकास प्राधिकरणों का दायरा तेजी से बढ़ रहा है. जयपुर विकास प्राधिकरण (जेडीए) अब कोटपूतली-बहरोड़ तक पहुंच गया है, जिसमें विराटनगर तहसील के 9 गांव और 17 तहसीलों के 632 गांव शामिल हो गए हैं. JDA का क्षेत्रफल करीब 6,000 वर्ग किलोमीटर तक विस्तार कर दिया गया है, जो करीब 3,000 वर्ग किलोमीटर था. उदयपुर विकास प्राधिकरण (यूडीए) में 70 नए गांव जुड़कर कुल 206 गांव हो गए हैं, जबकि कोटा विकास प्राधिकरण (केडीए) के दायरे में बूंदी और कोटा के 289 गांव शामिल किए गए हैं.
प्राधिकरणों का तर्क है कि बढ़ती आबादी के अनुरूप विस्तार जरूरी है ताकि मास्टर प्लान के तहत रिंग रोड, आवास योजनाएं, ट्रांसपोर्ट नेटवर्क और अन्य इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित हो सके. दावा किया जा रहा है कि इससे गांवों में निवेश व रोजगार बढ़ेगा ओड नागरिक सुविधाओं में सुधार होगा. लेकिन इस चमकदार दावे के पीछे एक दूसरी तस्वीर भी है, जहां खेती की जमीनें धीरे-धीरे कंक्रीट के जंगलों में बदल रही हैं. हरियाली की जगह कॉलोनियां और अवैध निर्माण बढ़ रहे हैं और स्थानीय लोगों के लिए विकास का अर्थ केवल ज़मीन अधिग्रहण और कागज़ी योजनाएं बनकर रह गया है.
किसे फायदा देगा?
जयपुर, उदयपुर और कोटा जैसे शहर, जो अपने पर्यावरणीय और सांस्कृतिक सौंदर्य के लिए जाने जाते हैं, अब अवैध कटान और अतिक्रमण के बढ़ते दबाव में हैं. ग्रामीणों के लिए यह स्थिति दुविधाजनक है न वे गांव का विकास देख पा रहे हैं, न ही शहर की सुविधाओं का लाभ उठा पा रहे हैं. जेडीए का दायरा अब करीब सात हजार वर्ग किलोमीटर तक फैल चुका है, जिसमें कुल 1,418 राजस्व गांव शामिल हो गए हैं, पर सवाल यही है कि क्या इतना विशाल विस्तार वास्तव में आम नागरिक के लिए सुलभ और लाभकारी होगा या यह केवल शहरीकरण के नाम पर ग्रामीण जीवन और प्रकृति के क्षरण की नई कहानी लिखेगा.
पेराफेरी में आ रही पंचायतों का दर्द भी समझना होगा
प्राधिकरण की पेराफेरी में आने वाली पंचायतों में असंतोष बढ़ रहा है, क्योंकि ग्राम पंचायतों की शक्तियां घटती जा रही हैं. पहले जहां छोटे पट्टे और स्थानीय समस्याएं पंचायत स्तर पर ही सुलझ जाती थीं, अब ग्रामीणों को एनओसी, सेटलमेंट या किसी भी निर्माण की अनुमति के लिए प्राधिकरण के दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ते हैं, जहां फाइलें महीनों अटकी रहती हैं. अफसरशाही की लेट-लतीफी, पारदर्शिता की कमी और जवाबदेही का अभाव, इन प्राधिकरणों को आम आदमी से दूर कर रहा है. इसी के साथ, मास्टर प्लान की लैंड यूज़ नीतियों को वन, पहाड़ी और झील क्षेत्रों में लागू करना बेहद मुश्किल है, जिससे प्राकृतिक और पारिस्थितिक असंतुलन का खतरा बढ़ता जा रहा है. ऐसे में पेराफेरी और पहाड़ी क्षेत्र के लिए यह संकट सिर्फ विकास नीति का नहीं, बल्कि सामाजिक-आर्थिक, पर्यावरण और प्रशासनिक चुनौती बनता जा रहा है.
क्या प्राधिकरण का फोकस सिर्फ मुनाफा है?
विकास का कही विरोध नहीं हो रहा, लेकिन बहस यही है कि कागजों पर विकास दिखाकर जमीनी हकीकत में अव्यवस्था नजर आती है. बिल्डर लॉबी और भूमाफिया को तो सब सुविधाएं, किसान और आम ग्रामीण के लिए मुश्किलें ही बढ़ती हैं. अधिक गांव जोड़ने के नाम पर पारंपरिक व्यवस्था हाशिए पर, प्रशासनिक बोझ और विसंगतियां बढ़ती हैं. क्योंकि जेडीए और अन्य प्राधिकरणों का मास्टर प्लान, वास्तविक ज़मीनी जरूरतों के मुकाबले बिल्डर लॉबी को फायदा पहुंचाने के लिए ज्यादा बदनाम हो चुका है.
शहर का प्राकृतिक विस्तार जहां शहरी नियोजन के हवाले होना चाहिए, वहां बेतरतीब कॉलोनियां, जमीन अधिग्रहण की राजनीति और खेती लायक भूमि की जगह कंक्रीट ज्यादा दिखती है. खेती-बाड़ी और हरे भरे इलाके, कांक्रीट के जंगल और अवैध कॉलोनियों में बदल जाते हैं. ऐसे में ग्रामवासियों के पास विकल्प सीमित रह जाते हैं- ना तो वे गांव का विकास देख पाते हैं, ना शहर की सुविधाओं का लाभ. साथ ही जो जयपुर, उदयपुर, कोटा जैसे इलाके पहाड़ियों, वन क्षेत्रों, झीलों के लिए विख्यात हैं, वहां वन क्षेत्र की लैंड यूज पॉलिसी को लागू कराना बेहद मुश्किल है. यहां अतिक्रमण और अवैध कटान के खतरे बढ़ने की भी आशंका है.
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