राजकुमार की फिल्म है– सौदागर. इस मूवी का फेमस डायलॉग याद आता है– “जानी, हम तुम्हें मारेंगे, जरूर मारेंगे. पर बंदूक भी हमारी होगी और गोली भी हमारी होगी और वह वक्त भी हमारा होगा.” चलिए, इस डायलॉग को थोड़ा बदल देते हैं– “जानी, हम तुम्हें मात देंगे, जरूर देंगे. व्यक्ति भी हमारा होगा और तरीका भी. और वह वक्त भी हमारा होगा.” यही राजस्थान में अशोक गहलोत की राजनीति का स्टाइल है.
उनकी राजनीति देखे तो उनके साथ खिलाफ गुटबाजी करने वाले नेता भी कभी उनके साथ खड़े दिखे और उनके साथ खड़े रहने वाले नेता उनके खिलाफ. चाहे वह राजेश पायलट हो, परसराम मदेरणा, शीशराम ओला, डॉ. सीपी जोशी हो, बीडी कल्ला या सचिन पायलट. गहलोत ने कई दिग्गजों को राजनीति में शिकस्त दी और सियासत में ‘जादूगर’ का खिताब हासिल किया.
बीते दिनों अमीन खान की कांग्रेस पार्टी में वापसी में पूर्व सीएम अशोक गहलोत की अहम भूमिका रही है. पार्टी से सवा साल तक निष्कासित रहें अमीन खान पर लोकसभा चुनाव में पार्टी विरोधी गतिविधियों का आरोप था. कई बार विवादों में रहने वाले और पूर्व मंत्री अमीन खान को गहलोत ने पार्टी में वापस लाने के लिए खास पहल की. वे काफी वक्त से इसके लिए कोशिश कर रहे थे, लेकिन कई तरह के रोड़े आए और इसमें देरी भी हुई.
रेगिस्तान की राजनीति में अहम दखल रखने वाले अमीन खान गहलोत खेमे के एक मजबूत खिलाड़ी रहे हैं. वो खिलाड़ी, जिनके बूते गहलोत ने हरीश चौधरी को मौके दर मौके पछाड़ने की कोशिश की. हालांकि हरीश चौधरी हाईकमान की नजदीकियों के चलते पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी पाते चले गए तो गहलोत की चिंताएं भी बढ़ती चली गईं. राजनीतिक जानकारों के मुताबिक, गहलोत खेमे के होने के कारण अमीन खान की वापसी संभव हुई है. इससे गहलोत की पार्टी में पकड़ भी मजबूत हुई है.
हरीश चौधरी की काट के लिए अमीन खान को लाए?
अमीन खान की वापसी से कांग्रेस में कुछ गुटबाजी के संकेत भी मिले हैं, लेकिन गहलोत ने अपने प्रभाव से उन्हें पार्टी में फिर से शामिल करवाया है, ताकि पश्चिम राजस्थान में हरीश चौधरी के खिलाफ उनके समीकरण मजबूत हो सके. जैसेलमेर और बाड़मेर में मेवाराम जैन, सालेह मोहम्मद और अमीन खान की राजनीति के जरिए गहलोत ने हमेशा पकड़ बनाए रखी. बायतू विधायक हरीश चौधरी मारवाड़ में कांग्रेस की अहम धुरी बनने की लगातार कोशिश में हैं और इस मौके पर वो गहलोत से सीधे टकरा जाते हैं. यही वजह है कि गहलोत ने कांग्रेस के कई नेताओं को हरीश चौधरी के खिलाफ खड़ा किया और गुट को मजबूत किया.
बात सिर्फ अमीन खान की नहीं है, बल्कि ऐसे नेताओं की फेहरिस्त लंबी है जो उनके मनमुताबिक पार्टी में मजबूत हुए, फिर बाहर भी हुए और बीजेपी ज्वॉइन कर खामोश भी हो गए. साइडलाइन होने के बावजूद भी ऐसे नेता बीजेपी में जाने के बाद पार्टी में बने हुए हैं. राजनीतिक एक्सपर्ट्स मानते हैं कि ‘जादूगर’ अपने करीबियों को ऐसे ही मोहरा बनाते हैं और फिर जब चुनाव आते हैं या सरकार की वापसी होती है तो उन्हें वापस ले आते हैं.
साल 2018 के विधानसभा चुनाव में राजस्थान में 13 बागी जीतकर आए थे, जिन्होंने सचिन पायलट के सीएम बनने के मंसूबों पर पानी फेरा. तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष पायलट ने जब इन गहलोत के करीबियों के टिकट काटे तो ये पार्टी से बागी हो गए और निर्दलीय पर्चा भरा. 99 पर अटकी कांग्रेस के लिए गहलोत ने इन्हीं निर्दलीयों के सहारे बिसात बिछाई और कांग्रेस हाईकमान को ताकत भी दिखाई. नतीजा यह रहा कि गहलोत की तीसरी बार ताजपोशी हुई और संयम लोढा, रामकेश मीणा जैसे कांग्रेस के बागी सरकार में सलाहकार तक पहुंचे और दूदू विधायक बाबूलाल नागर, महादेव खंडेला, ओमप्रकाश हुड़ला समेत कई निर्दलीय भी पार्टी के समर्थन में दिखे.
वो नेता, जो कभी गहलोत के करीबी थे और आज बीजेपी में हैं–
⦁लालचंद कटारिया – लालचंद कटारिया जयपुर ग्रामीण से पूर्व सांसद और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता थे. राजस्थान में जाट वोटबैंक पर उनकी अच्छी पकड़ थी. मार्च 2024 में बीजेपी में आए. लालचंद कटारिया के साथ उनके दामाद और डेगाना से पूर्व विधायक विजयपाल मिर्धा, उनके समधी पूर्व कांग्रेस विधायक रिछपाल मिर्धा ने भी बीजेपी ज्वॉइन की. दोनों ही समधियों को बीजेपी ने अभी तक ना तो संगठन में कोई जिम्मेदारी दी और ना ही सरकार में हिस्सेदारी.
⦁महेंद्रजीत सिंह मालवीया- वागड़ में कांग्रेस की मजबूत धुरी रहे. आदिवासी अंचल में मजबूत पकड़. गहलोत की सरकार में जल संसाधन जैसे भारी-भरकर विभाग संभाला. बीजेपी के पूर्व जिला अध्यक्ष लालचंद पटेल ने इनके खिलाफ करोड़ों रुपए के भ्रष्टाचार के आरोप लगाए तो पूर्व मुख्यमंत्री गहलोत की सरकार पर सवाल खड़े हो गए. फिर लाभचंद पटेल ने ही मालवीया को पार्टी ज्वॉइन कराई और बागीदौरा विधानसभा सीट से इस्तीफा देने के बाद मालवीया लोकसभा चुनाव लड़े. मालवीया लोकसभा चुनाव भी हारे और उनके गढ़ बागीदौरा से उनका करीबी भी चुनाव हारा. दक्षिणी राजस्थान में उनकी मजबूत पकड़ खो गई और आज राजनीतिक नियुक्ति के इंतजार में हैं.
⦁राजेंद्र यादव- गहलोत कैबिनेट में गृह राज्य मंत्री रह चुके हैं. आयकर विभाग की छापेमारी के बाद मुश्किल में पड़े. 2023 का विधानसभा चुनाव हारने के बाद पार्टी में भी हाशिए थे.
⦁आलोक बेनीवाल- 2018 के चुनाव में आलोक बेनीवाल को कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया तो निर्दलीय चुनाव और जीता. इसके बाद उन्होंने गहलोत सरकार का समर्थन किया. 2020 में जब कांग्रेस सरकार पर संकट आया था, तब भी आलोक बेनीवाल ने गहलोत का साथ दिया था. बावजूद इसके साल 2023 में उन्हें टिकट नहीं दिया. इस बार भी निर्दलीय चुनाव लड़ा, लेकिन हार गए.