नयी दिल्ली, 27 मई (भाषा) दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करके एक महिला न्यायिक अधिकारी की गरिमा को ठेस पहुंचाने के लिए एक वकील को दी गई सजा कम करने से इनकार करते हुए कहा है कि लिंग-विशिष्ट अपशब्दों के माध्यम से किसी न्यायाधीश को धमकाने या डराने वाला कोई भी कृत्य न्याय पर हमला है।
उच्च न्यायालय ने कहा कि यह महज व्यक्तिगत दुर्व्यवहार का मामला नहीं है, बल्कि ऐसा मामला है जहां ‘न्याय के साथ ही अन्याय हुआ’ और जहां कानून की निष्पक्ष आवाज की प्रतीक एक न्यायाधीश अपने आधिकारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते समय व्यक्तिगत हमले का निशाना बनी।
न्यायमूर्ति स्वर्णकांता शर्मा ने कहा, ‘‘यह अत्यंत चिंता का विषय है कि कभी-कभी न्यायाधाीश भी लैंगिक दुर्व्यवहार से मुक्त नहीं रह पाते। जब एक महिला न्यायाधीश को अदालत के एक अधिकारी, (जैसे इस मामले में एक वकील), द्वारा व्यक्तिगत अपमान और निरादर के व्यवहार का सामना करना पड़ता है, तो यह न केवल एक व्यक्तिगत अन्याय को दर्शाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि महिलाएं आज भी न्याय व्यवस्था के उच्चतम स्तरों पर भी एक प्रणालीगत असुरक्षा का सामना करती हैं।’’
अदालत ने 26 मई के अपने फैसले में आरोपी वकील को पहले ही जेल में बिताई गई पांच महीने की अवधि को सजा के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया।
हालांकि, अदालत ने निचली अदालत के आदेश में यह संशोधन किया कि सजा एक साथ चलेंगी, न कि क्रमानुसार। निचली अदालत द्वारा अलग-अलग सजा को क्रमानुसार चलाने का जो निर्देश दिया गया था, उससे कुल सजा अवधि दो वर्ष हो जाती।
आदेश में संशोधन के बाद, 2015 में चालान मामले में महिला न्यायाधीश के प्रति अपशब्दों का प्रयोग करने वाले वकील की कुल सजा 18 महीने तक सीमित रहेगी।
इसमें कहा गया है, ‘‘कोई भी कृत्य जो न्यायाधीश को धमकाने या डराने का प्रयास करता है, विशेष रूप से लिंग-विशिष्ट अपशब्द के माध्यम से, न्याय पर हमला है, और इससे दृढ़ जवाबदेही के साथ निपटा जाना चाहिए।’’
निचली अदालत की महिला पीठासीन अधिकारी ने अक्टूबर 2015 में हुई घटना के बाद पुलिस में एक औपचारिक शिकायत दर्ज कराई थी, जिसमें आरोप लगाया गया था कि वकील ने ‘एक महिला न्यायिक अधिकारी होने के नाते उनका अपमान किया और उनकी तथा अदालत की गरिमा को भी ठेस पहुंचायी।’’
इस घटना को ‘‘अत्यंत परेशान करने वाली’’ बताते हुए न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि इस मामले में वकील का ‘‘चौंकाने वाला’’ आचरण सामने आया है, जो पूरी तरह से अस्वीकार्य है।
उच्च न्यायालय ने कहा कि यह अन्याय किसी दूरस्थ वादी या अज्ञात शिकायतकर्ता के प्रति नहीं था, बल्कि यह एक वर्तमान में कार्यरत महिला न्यायिक अधिकारी पर किया गया, वह भी उसकी अपनी अदालत कक्ष के भीतर— एक ऐसा स्थान जो सम्मान, व्यवस्था और कानून की गरिमा का प्रतीक होना चाहिए।
उसने कहा, ‘‘वहां उन्हें (महिला न्यायिक अधिकारी को) ‘न्याय’ देने की गंभीर जिम्मेदारी सौंपी गई थी, वह भी बिना किसी डर या पक्षपात के, वहीं उन्हें एक ऐसे व्यक्ति – एक वकील – द्वारा दुर्व्यवहार, धमकी और अपमान का सामना करना पड़ा, जिसकी यह संवैधानिक और नैतिक जिम्मेदारी थी कि वह अदालत की गरिमा को बनाए रखे।’’
अदालत ने कहा, ‘‘इस स्थान पर, जहां शिकायतकर्ता को सम्मान प्राप्त होना चाहिए था और कानून की गरिमा को बनाए रखना था, वहीं उन्हें दुर्व्यवहार, अनुचित आचरण और अपमान सहना पड़ा – वह भी एक ऐसे व्यक्ति- एक वकील, के हाथों, जिस पर अदालत की मर्यादा बनाए रखने का दायित्व था।’’
उच्च न्यायालय ने कहा कि न्यायिक पद पर आसीन किसी महिला को यह महसूस कराया जाए कि उसका अधिकार दूसरों की शालीनता या संयम पर निर्भर है, तो न्यायिक स्वतंत्रता की बुनियाद ही हिल जाएगी।
अदालत ने यह भी कहा कि किसी भी न्यायाधीश, चाहे वह पुरुष हो या महिला, को कभी भी यह महसूस नहीं कराया जाना चाहिए कि उन्हें कानून और उनके पद के प्रति सम्मान के बजाय शिष्टाचार द्वारा संरक्षित किया जा रहा है।
अदालत ने कहा कि यह घटना उस सोच को दर्शाती है जिसमें सशक्त भूमिकाओं में मौजूद महिलाएं भी अपमान या तिरस्कार से अछूती नहीं मानी जातीं।
अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों को छिटपुट या मामूली कहकर खारिज नहीं किया जाना चाहिए। उसने कहा कि इन्हें उस गंभीरता से लिया जाना चाहिए, जिसके वे योग्य हैं, क्योंकि ये घटनाएं यह तय करती हैं कि न्यायपालिका को कैसे देखा जाता है और उससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि महिलाएं न्याय व्यवस्था में अपने स्थान को कैसे देखती हैं।
अदालत ने कहा, ‘‘जब कोई व्यक्ति, जो न्याय की कुर्सी पर बैठकर न्याय देने का कार्य कर रहा हो, उसे अश्लील भाषा द्वारा अपमानित किया जाए, तो कानून को उसकी ओर से और अपने स्वयं के सम्मान की रक्षा के लिए और भी मुखर होकर बोलना चाहिए। कानून को सबसे स्पष्ट रूप से तब बोलना चाहिए, जब पीड़िता स्वयं न्याय की आवाज हो, जिसे अदालत में उपस्थित हर व्यक्ति न्याय के प्रतीक के रूप में देखता है।’’
उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि जब किसी न्यायिक अधिकारी की गरिमा को गंदी और अपमानजनक भाषा द्वारा तार-तार किया जाता है और यह संदेह से परे साबित हो जाता है तो कानून को वह सूत्र बनना चाहिए जो उस गरिमा को फिर से जोड़ सके और बहाल कर सके।
भाषा अमित सुरेश
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