नयी दिल्ली, 16 जून (भाषा) उच्चतम न्यायालय में दायर एक याचिका में उसके 20 मई के उस आदेश पर पुनर्विचार करने का अनुरोध किया गया है जिसमें युवाओं को विधि स्नातक होते ही न्यायिक सेवा परीक्षा में शामिल होने से रोक दिया गया और प्रवेश स्तर के पदों पर आवेदन करने वाले उम्मीदवारों के लिए न्यूनतम तीन साल वकालत करने का मानदंड तय किया गया है।
प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह और न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन ने 20 मई को सिविल न्यायाधीश (जूनियर डिवीजन) बनने के लिए न्यायिक सेवा परीक्षा में शामिल होने के वास्ते न्यूनतम तीन साल वकालत करने को अनिवार्य बनाने का फैसला दिया था।
हाल ही में अधिवक्ता के रूप में पंजीकरण कराने वाले चन्द्र सेन यादव द्वारा दायर पुनर्विचार याचिका में तर्क दिया गया है कि यह इच्छुक विधि स्नातकों के संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 16 (सभी नागरिकों के लिए सार्वजनिक रोजगार के मामलों में अवसर की समानता) के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है।
याचिका में कहा गया है कि सभी न्यायिक सेवा अभ्यर्थियों के लिए तीन वर्ष की वकालत की अनिवार्यता लागू करना मनमाना और अनुचित भेदभाव है, जो नए विधि स्नातकों को सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर से वंचित करता है।
याचिका में विशेष रूप से उच्च न्यायालयों और राज्य सरकारों को नए पात्रता मानदंड लागू करने के लिए अपने सेवा नियमों में संशोधन करने के निर्देश को चुनौती दी गई है।
उच्चतम न्यायालय ने अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ द्वारा दायर एक याचिका पर यह फैसला दिया था।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा था कि नए विधि स्नातकों को न्यायपालिका में सीधे प्रवेश की अनुमति देने से व्यावहारिक चुनौतियां पैदा हुई हैं, जैसा कि विभिन्न उच्च न्यायालयों द्वारा प्रस्तुत रिपोर्टों में परिलक्षित होता है।
भाषा गोला नरेश
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