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Sunday, June 22, 2025

वारंट की तामील करते समय आपातकाल का वास्तविक अर्थ समझा : पूर्व पुलिस अधिकारी

Newsवारंट की तामील करते समय आपातकाल का वास्तविक अर्थ समझा : पूर्व पुलिस अधिकारी

(सौम्या शुक्ला)

नयी दिल्ली, 22 जून (भाषा) दिल्ली पुलिस के एक युवा अधिकारी विजय मलिक 1975 में लगाये गये आपातकाल के दौरान अपने कई अन्य साथियों की तरह इसके वास्तविक प्रभावों से अनजान थे। उन्हें जब वारंट की तामील करने का काम सौंपा गया, तब स्थिति की गंभीरता और लोगों में व्याप्त गहरे भय की भावना का अहसास हुआ।

देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25 जून 1975 को मुल्क में आपातकाल की घोषणा की। इसके बाद घटनाओं का एक उथल-पुथल भरा दौर शुरू हो गया। आपातकाल 21 मार्च, 1977 को हटा लिया गया था।

जब देश में आपातकाल लगाया गया था, तब मलिक 28 साल के थे। अब उनकी उम्र 78 वर्ष है और आपातकाल लगाए जाने के 50 साल पूरे हो रहे हैं। मलिक ने उस दौर को याद करते हुए कहा, ‘अनुशासन के मामले में आम जनता के लिए आंशिक रूप से अच्छा था, लेकिन व्यक्तिगत और राजनीतिक प्रतिशोध के मामले में इसका घोर दुरुपयोग किया गया।’’

दक्षिण दिल्ली के कोटला मुबारकपुर में पुलिस चौकी के प्रभारी और उप-निरीक्षक के रूप में उस वक्त तैनात रहे मलिक को समाचार पत्रों के माध्यम से आपातकाल लागू किए जाने के बारे में पता चला था।

उन्होंने उस दौर को याद करते हुए कहा, ‘‘हम पुलिस बल में नए थे और हमें यह भी नहीं पता था कि आपातकाल का क्या मतलब होता है। हमने अपने वरिष्ठों से पूछा और तब हमें समझ में आया कि आगे क्या होने वाला है।’’

आपातकाल को ‘राजनीतिक युद्ध’ करार देते हुए, 1968 में पुलिस बल में शामिल हुए मलिक ने कहा कि पुलिस को जनसंघ जैसे विपक्षी दलों के नेताओं के खिलाफ आंतरिक सुरक्षा अधिनियम (मीसा) के तहत जारी वारंट की तामील करने का काम सौंपा गया था।

उन्होंने कहा कि वारंट में उन व्यक्तियों के बारे में विस्तृत जानकारी होती थी, जिन्हें सरकार कैद करना चाहती थी।

उन्होंने ‘पीटीआई-भाषा’ से बातचीत में कहा, ‘‘पूरे नाम और पते के साथ हमें वारंट प्राप्त होते थे और फिर उन्हें हिरासत में लेने के लिए छापेमारी की जाती थी। चूंकि, सूचना तेजी से फैलती थी, इसलिए कुछ मामलों में लोग गिरफ्तार किये जाने से पहले ही भाग जाते थे।’

उन्होंने कहा कि उन दिनों पुलिस लोगों को पकड़ने के लिए स्रोत-आधारित सूचना पर निर्भर थी, क्योंकि उस समय प्रौद्योगिकी का बहुत कम उपयोग होता था।

बाद में, जब वह नारायणा में थाना प्रभारी के रूप में तैनात थे, तो उनकी मुलाकात दो ऐसे राजनीतिक बंदियों से हुई, जिन्हें उन्होंने आपातकाल के दौरान गिरफ्तार किया था।

मलिक ने कहा कि उनके मन में कोई दुर्भावना नहीं थी और वास्तव में बंदियों ने कहा, ‘आप अपने कर्तव्य का पालन कर रहे थे।’’

मलिक ने याद किया कि पहली नज़र में तो जीवन सामान्य लग रहा था। उन्होंने कहा कि बसें चल रही थीं, कार्यालय खुले थे और लोग अपनी रोजर्मरा की जिंदगी में व्यस्त थे, लेकिन इसके पीछे समाज में गहरी चिंता और भय की भावना व्याप्त थी।

उन्होंने कहा कि माहौल इतना तनावपूर्ण हो गया था कि विपक्षी दलों के समर्थक पुलिस गश्त के दौरान दुकानों और घरों से अपने नेताओं की तस्वीरें हटाकर उनकी जगह इंदिरा गांधी की तस्वीरें लगा देते थे, ताकि गिरफ्तारी के जोखिम से बच सकें।

यह पूछे जाने पर कि क्या आपातकाल के बारे में कोई सकारात्मक बात थी, उन्होंने कहा कि अपराध नियंत्रण में था, क्योंकि लोगों में डर था।

सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी ने कहा कि जहां अपराध दर में कमी आ रही थी, वहीं पुलिस के भीतर ‘सत्ता के दुरुपयोग’ के कई मामले देखे गए।

आपातकाल के दौरान जबरन की गई सामूहिक नसबंदी के बारे में बात करते हुए कहा, ‘नसबंदी अभियान दमनकारी तरीके से लागू किए गए थे। एसएचओ अपने लोगों को बुलाते थे और उन पर नसबंदी कराने का दबाव डालते थे। लोगों के पास डर के कारण इसका पालन करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था।’

उन्होंने आरोप लगाया कि उस समय अनियंत्रित शक्ति के कारण दिल्ली पुलिस में भ्रष्टाचार फैल गया था। मलिक ने कहा कि कुछ अधिकारी लोगों को पुलिस थानों में बुलाते थे और धन की वसूली करने की कोशिश करते थे।

भाषा रंजन रंजन दिलीप

दिलीप

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