नयी दिल्ली, 24 जून (भाषा) देश में 25 जून, 1975 की आधी रात को आपातकाल की घोषणा एक ‘भयावह भूल’ थी और आजादी के बाद के भारतीय इतिहास में स्वतंत्रता के लिहाज से यह ‘सबसे काला दौर’ था। प्रख्यात विधि विशेषज्ञों ने यह बात कही।
उन्होंने कहा कि 50 साल पहले लगाए गए आपातकाल की 21 महीने की अवधि भारत की लोकतांत्रिक यात्रा में एक ‘गंभीर घटना’ थी और इसका देश की लोकतांत्रिक संस्थाओं पर इसका सबसे गहरा प्रभाव पड़ा।
वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा, ‘‘आपातकाल एक भयावह भूल थी। इसका सबसे बड़ा सबक यह है कि संवैधानिक शक्ति को कभी भी व्यक्तिगत नहीं बनाया जाना चाहिए। यह हमारे वर्तमान शासकों के लिए भी एक संदेश है। अत्याचार अभिशाप है। भारत के लोग इसके खिलाफ खड़े हुए और वे हमेशा खड़े रहेंगे।’’
संवैधानिक और कानूनी मामलों के मशहूर विशेषज्ञ और वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने कहा कि 1975 के आपातकाल का एक राजनीतिक और न्यायिक आयाम था।
वर्ष 1976 के एडीएम जबलपुर मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एक के मुकाबले चार के बहुमत से आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों के निलंबन को बरकरार रखा था।
भारत के तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश ए. एन. रे और न्यायमूर्ति एम एच बेग, न्यायमूर्ति वाई वी चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पी एन भगवती के बहुमत के फैसले ने माना कि अनुच्छेद 21 के उल्लंघन के लिए कानूनी उपाय मांगने का अधिकार आपातकाल के दौरान निलंबित कर दिया गया था।
एकमात्र असहमति जताने वाले न्यायमूर्ति एच आर खन्ना ने कहा कि जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार अंतर्निहित है और यह केवल संविधान द्वारा प्रदत्त नहीं किया गया है। उत्तर प्रदेश राज्य बनाम राज नारायण मामले में 1975 का फैसला एडीएम जबलपुर के फैसले से पहले आया था।
12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को चुनावी कदाचार का दोषी ठहराया और जनप्रतिनिधि अधिनियम के तहत उन्हें कोई भी निर्वाचित पद धारण करने से रोक दिया।
माना जाता है कि इस फैसले के कारण ही 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू किया गया। गांधी ने 1971 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की रायबरेली सीट से अपने प्रतिद्वंद्वी नारायण को हराकर जीत हासिल की थी।
नारायण ने चुनावी कदाचार का आरोप लगाते हुए उनके चुने जाने को चुनौती दी और कहा कि गांधी के चुनाव एजेंट यशपाल कपूर एक सरकारी कर्मचारी थे और उन्होंने निजी चुनाव संबंधी कार्यों के लिए सरकारी अधिकारियों का इस्तेमाल किया।
द्विवेदी ने कहा, ‘‘आजादी के बाद भारत के इतिहास में स्वतंत्रता के लिहाज से यह सबसे काला दौर (आपातकाल) इंदिरा गांधी के कार्यकाल में कांग्रेस नेतृत्व द्वारा संवैधानिक शक्तियों के राजनीतिक दुरुपयोग और अधिनायकवाद के लिए जाना जाता है। इसके अलावा यह सर्वोच्च न्यायालय की क्रूर न्यायिक प्रतिक्रिया के लिए भी जाना जाता है, जो अधिनायकवाद के सामने आत्मसमर्पण करने के बराबर है।’’
उन्होंने केशवानंद भारती मामले से जुड़े एक ऐतिहासिक फैसले का भी जिक्र किया।
वर्ष 1973 में केशवानंद भारती मामले में ‘आधारभूत संरचना’ सिद्धांत पर दिए गए ऐतिहासिक फैसले ने संसद की संविधान में संशोधन करने की व्यापक शक्ति को सीमित कर दिया था और साथ ही न्यायपालिका को किसी भी संशोधन की समीक्षा करने का अधिकार दिया था।
द्विवेदी ने कहा कि संवैधानिक लोकतंत्र के विनाश को रोकने की एकमात्र गारंटी लोगों की सक्रिय सतर्कता है, वहीं धवन ने कहा कि सत्ता भ्रष्ट करती है और निरंकुश सत्ता असहनीय है। धवन ने कहा, ‘‘संदेश यह है – दोबारा कभी नहीं, अब या कभी भी।’’
वर्ष 2017 के ‘निजता के अधिकार’ से जुड़े पुट्टास्वामी मामले में उच्चतम न्यायालय के नौ न्यायाधीशों की पीठ ने ऐतिहासिक फैसले में एडीएम जबलपुर के फैसले को प्रभावी ढंग से खारिज कर दिया। पीठ ने कहा, ‘‘एडीएम जबलपुर में सभी चार न्यायाधीशों के बहुमत से दिए गए फैसले गंभीर रूप से त्रुटिपूर्ण हैं। जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को मानव अस्तित्व से अलग नहीं किया जा सकता।’’
नौ न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने एडीएम जबलपुर के फैसले को खारिज कर दिया था।
वरिष्ठ अधिवक्ता विकास पाहवा ने कहा, ‘‘संवैधानिक कानून से जुड़े व्यक्ति के रूप में, मैं जून 1975 और मार्च 1977 के बीच लगाए गए आपातकाल को भारत की लोकतांत्रिक यात्रा में एक गंभीर घटना मानता हूं।’’
अधिवक्ता अश्विनी दुबे ने कहा कि आपातकाल का सबसे गहरा प्रभाव भारत की लोकतांत्रिक संस्थाओं पर पड़ा और मौलिक अधिकारों के निलंबन से व्यापक मानवाधिकारों का हनन हुआ। उन्होंने उस अवधि के दौरान मनमाने ढंग से की गई गिरफ्तारियों और बिना सुनवाई के लोगों को हिरासत में लिए जाने का उल्लेख किया।
दुबे ने कहा, ‘‘प्रेस पर पाबंदी ने अभिव्यक्ति की आजादी को दबा दिया, जिससे भय का माहौल पैदा हुआ और असहमति को दबाया गया। सरकार ने कथानक को नियंत्रित किया और किसी भी आलोचना को बेरहमी से दबा दिया गया।’’
भाषा संतोष मनीषा
मनीषा