(अरुणव सिन्हा)
लखनऊ, 25 जून (भाषा) तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को 12 जून 1975 को लोकसभा की सदस्यता के अयोग्य घोषित करने वाले न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा को अपने इस फैसले पर कभी पछतावा नहीं हुआ।
उनके इस निर्णय के 13वें दिन देश में 21 महीने लंबा आपातकाल लागू किया गया और इतिहास के पन्नों में दर्ज अनेक घटनाक्रम हुए, मगर सिन्हा ने हमेशा माना कि उन्होंने जो किया, सही किया।
न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा के बेटे न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) विपिन सिन्हा ने ‘पीटीआई—भाषा’ से टेलीफोन पर की गयी बातचीत में बताया, ”मेरे पिता को वह फैसला सुनाने पर कभी कोई पछतावा नहीं हुआ, क्योंकि उन्होंने वही किया जो सही था। उनके लिए यह किसी सामान्य मामले की तरह था और उन्होंने गुण—दोष और तथ्यों के आधार पर फैसला किया।”
वह ऐतिहासिक फैसला कोर्ट रूम 24 (जिसे अब 34 के रूप में पुनः क्रमांकित किया गया है) में सुनाया गया था।
न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) विपिन सिन्हा ने कहा, ”कोई भी यह नहीं कह सकता कि उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री को अयोग्य ठहराने का आदेश देने का बाद में कोई लाभ उठाने की कोशिश की। कोई भी यह नहीं कह सकता कि उन्हें इसका कोई पारितोषिक मिला।”
भारत में 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक आपातकाल लागू रहा। तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत एक आदेश जारी किया था जिसमें ‘आंतरिक अशांति’ का हवाला देते हुए मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया था। इस फैसले से व्यापक आक्रोश फैल गया।
उन्होंने कहा कि उनके पिता न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने कभी अपने फैसले पर डर या पछतावा महसूस नहीं किया। अगर उन्हें डर या कुछ और महसूस होता तो वे फैसला नहीं सुनाते।
न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) विपिन सिन्हा ने कहा, ”मेरे पिता को उस वक्त सबसे शक्तिशाली रहीं इंदिरा गांधी का लोकसभा निर्वाचन रद्द करने के नतीजों के बारे में पता रहा होगा। उनके लिये सबसे आसान तरीका याचिका को खारिज करना होता, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।”
उन्होंने कहा, ”जब आपातकाल लगाया गया तब मैं ग्यारहवीं कक्षा में था। हां, कभी-कभी मेरे पिता को धमकी देने वाले गुमनाम फोन आते थे कि उन्हें जल्द ही गिरफ्तार कर लिया जाएगा लेकिन जहां तक मुझे याद है, हमारे परिवार पर कभी कोई दबाव नहीं था।”
न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) विपिन सिन्हा ने कहा, ”वह लैंडलाइन फोन का जमाना था इसलिए यह नहीं बताया जा सकता था कि वे फोन कॉल कौन कर रहा था। कई बार कॉल करने वाले दावा करते थे कि पुलिस मेरे पिता को गिरफ्तार करने आई है लेकिन चूंकि ऐसा कुछ कभी नहीं हुआ, इसलिए वे गुमनाम कॉल ज़्यादातर शरारतपूर्ण लगते थे।”
आपातकाल के दौर को याद करते हुए उन्होंने कहा, ”लोगों के लिए, वह वाकई मुश्किल समय था। क्या कुछ हुआ, यह जगजाहिर है। कैसे छात्रों को परेशान किया गया, गिरफ्तार किया गया। प्रेस को चुप करा दिया गया, राजनीतिक नेताओं को जेल में डाल दिया गया और मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया।”
यह पूछे जाने पर कि वह अपने पिता के ऐतिहासिक फैसले को कैसे आंकते हैं, उन्होंने कहा, ”फैसले का आकलन करना मेरा काम नहीं है। फैसला हमेशा शामिल पक्षों के बीच होता है। उनकी स्थिति चाहे जो भी हो, जीतने वाला पक्ष फैसले की सराहना करता है, और दूसरा पक्ष इसकी निंदा करता है।’
उन्होंने कहा, ”न्यायाधीश को किसी भी बाहरी विचार से प्रभावित हुए बिना कानून के अनुसार मामले का फैसला करना होता है। जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में प्रावधान है कि कुछ कार्य, यदि किए गए हों तो उन्हें भ्रष्ट आचरण माना जाएगा। अगर कोई भ्रष्ट आचरण सिद्ध हो जाता है, तो परिणाम या दंड उस समय प्रचलित कानून के अनुसार होना चाहिए।”
यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें याद है कि निर्णय सुनाने के बाद जब उनके पिता वापस लौटे, तो उनकी भाव—भंगिमाएं कैसी थीं, न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) विपिन सिन्हा ने कहा, ‘मेरे पिता ने कुछ भी साझा नहीं किया। जहां तक उनका सवाल है तो उन्होंने बस एक और मामले को निपटाया था। उच्च न्यायालय के मामलों पर घर में चर्चा नहीं की जाती थी। उस समय माता-पिता बहुत सख्त हुआ करते थे। जहां तक मुझे याद है तो निर्णय के बाद उनकी प्रतिक्रिया बहुत सामान्य थी।”
उन्होंने कहा, ”यहां तक कि मेरी मां भी इंदिरा गांधी के मामले में पिता जी द्वारा सुनाये गये निर्णय के बारे में जानने की कोई खास इच्छुक नहीं थीं। यदि आप जानना चाहते हैं कि क्या उन्होंने मेरे पिता से उन घटनाक्रमों के बारे में पूछा था जिसके कारण मेरे पिता ने यह निर्णय लिया, तो मैं आपको बता दूं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ था।”
आपातकाल पर अपने विचार पूछे जाने पर उन्होंने कहा, ”मैं केवल इतना कह सकता हूं कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों को प्रभावित करने वाली कोई भी कार्रवाई चाहे वह आपातकाल की आड़ में हो या फिर किसी और तरीके से, उसकी निंदा की जानी चाहिए क्योंकि यह लोकतंत्र की मूल अवधारणा के खिलाफ है।”
भाषा सलीम नरेश
नरेश