बेंगलुरु, 30 जून (भाषा) इतालवी लक्जरी फैशन ब्रांड ‘प्राडा’ के कोल्हापुरी चप्पलों के डिजाइन की नकल किए जाने को लेकर विवाद पैदा होने के बाद कर्नाटक के मंत्री प्रियांक खरगे ने कहा कि इन प्रसिद्ध चप्पलों को तैयार करने वाले राज्य के कारीगरों के नाम, कला और विरासत को मान्यता दी जानी चाहिए, न कि उन्हें दरकिनार किया जाना चाहिए।
खरगे ने इतालवी ब्रांड पर निशाना साधते हुए कहा कि प्राडा कोल्हापुरी चप्पल 1.2 लाख रुपये प्रति जोड़ी की दर से बेच रहा है।
उन्होंने रविवार को ‘एक्स’ पर कहा कि इन प्रसिद्ध चप्पलों को बनाने वाले कारीगर बड़ी संख्या में कर्नाटक के अथानी, निप्पानी, चिक्कोडी, रायबाग तथा बेलगावी, बागलकोट तथा धारवाड़ के अन्य हिस्सों में रहते हैं।
खरगे ने कहा, ‘‘वे पीढ़ियों से ये चप्पलें बनाते आ रहे हैं और इन्हें आसपास के शहरों में बेचते हैं, खासकर कोल्हापुर में, जो समय के साथ-साथ न केवल उसका मुख्य बाजार बन गया है, बल्कि उसके ब्रांड के रूप में भी स्थापित हो गया है।’’
कोल्हापुरी चप्पलों से मिलती-जुलती चप्पलें बनाने को लेकर आलोचनाओं के बाद इतालवी फैशन हाउस प्राडा ने स्वीकार किया है कि डिजाइन भारतीय हस्तनिर्मित चप्पलों से ‘‘प्रेरित’’ है।
प्राडा ने स्पष्ट किया है कि उसके मेन्स 2026 फैशन शो में प्रदर्शित सैंडल अभी डिजाइन चरण में हैं और उन्हें व्यावसायिक बिक्री के लिए अंतिम रूप नहीं दिया गया है।
खरगे ने याद किया कि कर्नाटक के सामाजिक कल्याण मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने कोल्हापुरी चप्पलों पर अकेले महाराष्ट्र द्वारा जीआई टैग (भौगोलिक संकेतक) का दावा करने के प्रयास का विरोध किया था।
उन्होंने कहा, ‘‘राज्य के स्वामित्व वाले चमड़ा उत्पाद निगम एलआईडीकेएआर के माध्यम से हमने यह सुनिश्चित करने के लिए लड़ाई लड़ी कि कर्नाटक के कारीगरों को नजरअंदाज नहीं किया जाए। मुझे गर्व है कि हम इसमें सफल रहे।’’
खरगे ने कहा कि अंततः जीआई टैग कर्नाटक और महाराष्ट्र के चार-चार जिलों को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया। उन्होंने कहा, ‘‘यह कभी दो राज्यों के बीच प्रतिस्पर्धा नहीं था, बल्कि हमारे साझा विरासत को संरक्षित करने और हमारे कारीगरों को उनके योग्य कानूनी मान्यता दिलाने का विषय था।’’
अधिकारियों के अनुसार, कर्नाटक सरकार ने 1976 में डॉ. बाबू जगजीवन राम लेदर इंडस्ट्रीज डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड (एलआईडीकेएआर) की स्थापना की थी। उन्होंने बताया कि इस पहल का मुख्य उद्देश्य राज्य में चमड़ा उद्योग का विकास करना और अनुसूचित जाति के चमड़ा कारीगरों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति को मजबूत करना था।
खरगे ने कहा कि प्राडा प्रकरण इस बात की याद दिलाता है कि केवल जीआई टैग (भौगोलिक संकेत) की मान्यता ही पर्याप्त नहीं है। साथ ही उन्होंने सांस्कृतिक उद्यमिता के महत्व पर जोर दिया।
खरगे ने कहा, ‘‘हमें इन कारीगरों के कौशल विकास, ब्रांडिंग, डिजाइन नवाचार और वैश्विक बाजार तक पहुंच सुनिश्चित करने की दिशा में निवेश करने की जरूरत है। वे केवल श्रेय के हकदार नहीं हैं, वे बेहतर मूल्य, व्यापक पहुंच और अपनी कला से स्थायी, सम्मानजनक आजीविका हासिल करने के हकदार हैं।’’
उन्होंने कहा कि जब अंतरराष्ट्रीय फैशन हाउस हमारे डिजाइन को अपनाते हैं, तो उन्हें हमारे कलाकारों के नाम, काम और विरासत को भी प्रदर्शित करना चाहिए, न कि उन्हें दरकिनार करना चाहिए।
खरगे ने कहा, ‘‘जीआई टैग केवल उन्हें कानूनी अधिकार देता है। अब हमारी जिम्मेदारी है कि हम उन्हें वैश्विक मंच प्रदान करें।’’
भाषा अमित पारुल
पारुल