नयी दिल्ली, तीन जुलाई (भाषा) न्यायपालिका द्वारा विधायिका के क्षेत्र में अतिक्रमण करने संबंधी आलोचनाओं को खारिज करते हुए उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति एन कोटिश्वर सिंह ने बृहस्पतिवार को कहा कि यदि सरकार बुनियादी रूपरेखा उपलब्ध नहीं करा सकती तो इसमें कोई गुरेज नहीं है कि अदालतें आधार तैयार करने की पहल करें।
उन्होंने कहा, ‘‘बेशक, यह आलोचना भी की जा रही है कि न्यायपालिका विधायिका के विधायी क्षेत्र में अतिक्रमण कर रही है। लेकिन जैसा कि बार-बार उल्लेख किया गया है या स्पष्ट किया गया है कि, हां, यदि सरकार बुनियादी रूप रेखा उपलब्ध नहीं करा सकती तो इसमें कोई गुरेज नहीं है कि अदालतें आधार तैयार करने की पहल करें और यह हमारे न्यायशास्त्र का हिस्सा बन गया है।’’
न्यायाधीश ने दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा ‘‘कार्यस्थल पर महिलाओं द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकायतें’’ डिजिटल पोर्टल की शुरुआत के मौके पर कहा कि महिलाओं के लिए यौन उत्पीड़न से अधिक गंभीर कोई बात नहीं है।
उन्होंने अन्य महानगरों के अलावा दिल्ली बार काउंसिल में महिलाओं के लिए आरक्षण के उदाहरण से इसकी व्याख्या की और कहा कि यह किसी और द्वारा नहीं बल्कि अदालतों द्वारा बनाया गया कानून है। उन्होंने इस प्रक्रिया को प्रगतिशील और रचनात्मक बताया।
उन्होंने कहा, ‘‘यह (यौन उत्पीड़न) महिलाओं का अपमान करता है, उनकी रचनात्मकता में बाधा उत्पन्न करता है, उनकी कार्यक्षमता को धीमा करता है, जिससे उन्हें भारी मानसिक और शारीरिक आघात पहुंचता है, जो समानता, स्वतंत्रता और न्याय के सक्षम सिद्धांतों के पूरी तरह से विपरीत है। इसलिए, इस खतरे से सीधे निपटना होगा। और इसी दृष्टिकोण से इस अधिनियम का महत्व और सार्थकता निहित है।’’
न्यायाधीश ने कहा कि कार्यस्थलों पर व्यक्तियों की गरिमा का सम्मान किया जाना चाहिए और सभी को समान अवसर प्रदान किए जाने चाहिए। उन्होंने कहा कि ऐसा कोई भी कार्य जो कर्मचारियों के लिए अनुकूल माहौल के खिलाफ हो, उसे निषिद्ध किया जाना चाहिए और बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए।
न्यायाधीश ने कहा कि वर्तमान में जिला न्यायपालिका में भर्ती की जा रही महिला न्यायाधीशों की संख्या पुरुषों की तुलना में अधिक है और औसत शायद 40 प्रतिशत से 70 प्रतिशत के बीच है।
उन्होंने कहा, ‘‘वास्तव में, मैं कभी-कभी मजाक में कहा करता था कि जहां तक जिला न्यायपालिका का सवाल है, भारतीय न्यायपालिका से पुरुष प्रजाति लुप्त होने जा रही है। यह बहुत बड़ी बात है।’’
न्यायमूर्ति सिंह ने कार्यस्थलों को सुरक्षित और प्रोत्साहित करने वाला बनाए रखने पर जोर दिया।
लैंगिक संवेदनशीलता की आवश्यकता पर बल देते हुए उन्होंने कहा कि लोगों को यह याद दिलाना होगा कि कुछ कृत्य निषिद्ध हैं और उन्हें बर्दाश्त नहीं किया जा सकता।
दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी.के. उपाध्याय ने कहा कि ‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’’ के नारे के स्थान पर ‘‘बेटी बचाओ, बेटा पढ़ाओ’’ होना चाहिए, क्योंकि बेटों को अधिक संवेदनशील बनाने की आवश्यकता है।
उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक और सामाजिक कारणों तथा जिस समाज में हम रहते हैं उसकी प्रकृति के कारण, कई बार यौन उत्पीड़न की घटनाएं प्रकाश में आने पर लोग उसे नकार देते हैं।
उन्होंने कहा, ‘‘हमें ऐसा नहीं लगता कि मेरे घर, मेरे पड़ोस, मेरे कार्यस्थल या किसी अन्य स्थान पर ऐसी कोई चीज घटित हो रही है, हम हमेशा इस बात से इनकार करते हैं कि ऐसी कोई चीज घटित हो सकती है।’’
न्यायमूर्ति उपाध्याय ने कहा, ‘‘ऐसा इसलिए नहीं है कि हम इसे नकारना चाहते हैं, बल्कि ऐसा हमारी परवरिश के कारण है। और जैसा कि मैंने कहा, इसके कारण सामाजिक-सांस्कृतिक हैं। इसलिए हमें इस नकारे जाने संबंधी प्रवृत्ति को तोड़ना होगा और इसके लिए जागरूकता कार्यक्रम महत्वपूर्ण हैं।’’
भाषा देवेंद्र पवनेश
पवनेश