प्रयागराज, चार जुलाई (भाषा) इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा है कि मृत्युदंड या आजीवन कारावास वाले मामलों में अग्रिम जमानत देने के विषय पर दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा के तहत प्रतिबंध अब लागू नहीं है।
अदालत ने कहा कि चूंकि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता 2023 (बीएनएसएस) की धारा 482, जो अब अग्रिम जमानत को नियंत्रित करती है, में सीआरपीसी की धारा 438 (6) के तहत निहित ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है, इसलिए मृत्युदंड या आजीवन कारावास के मामलों में अग्रिम जमानत देने पर कोई रोक नहीं है।
न्यायमूर्ति चंद्रधारी सिंह ने तीन जुलाई को अब्दुल हमीद नाम के व्यक्ति द्वारा दायर अग्रिम जमानत की याचिका स्वीकार करते हुए यह टिप्पणी की। हमीद को 2011 के हत्या के एक मामले में सम्मन जारी किया गया था, लेकिन जांच के दौरान उसके खिलाफ आरोप पत्र दाखिल नहीं किया गया।
याचिकाकर्ता की पहली अग्रिम जमानत उच्च न्यायालय की एक पीठ द्वारा फरवरी 2023 में सीआरपीसी की धारा 438(6) के तहत रोक को देखते हुए खारिज कर दी गई थी। सीआरपीसी की धारा 438(6) के तहत अग्रिम जमानत पर यह रोक उत्तर प्रदेश संशोधन अधिनियम, 2019 द्वारा लगाई गई थी।
एक जुलाई 2024 को बीएनएसएस लागू होने के बाद याचिकाकर्ता ने नये कानून की धारा 482 के तहत अग्रिम जमानत के लिए नए सिरे से अर्जी दायर की। सत्र न्यायालय ने मार्च 2025 में इसे खारिज कर दिया जिसके बाद याचिकाकर्ता ने उच्च न्यायालय का रुख किया।
याचिकाकर्ता के अधिवक्ता ने दलील दी कि बीएनएसएस के अस्तित्व में आने से सीआरपीसी की धारा 438(6) अब लागू नहीं है और मौजूदा अर्जी पूरी तरह से भिन्न कानूनी व्यवस्था के तहत दाखिल की गई।
वहीं दूसरी ओर, राज्य सरकार के वकील ने दलील दी कि हत्या का मामला 2011 का है और आरोप पत्र सीआरपीसी के तहत दाखिल किया गया था और इसका संज्ञान भी बीएनएसएस के लागू होने से पूर्व लिया गया। बीएनएसएस, उत्तर प्रदेश में लागू धारा 438(6) के तहत प्रतिबंध को पूर्व रूप से रद्द नहीं कर सकती।
बृहस्पतिवार को अपने फैसले में पीठ ने कहा कि 1 जुलाई 2024 के बाद दायर वर्तमान अर्जी पूरी तरह से बीएनएसएस के दायरे में आता है और इस प्रकार आवेदक इसके नरम प्रावधानों का लाभ पाने का हकदार है।
भाषा राजेंद्र नोमान सुभाष
सुभाष