(प्रदीप्त तपदार)
कोलकाता, पांच जुलाई (भाषा) अगले साल होने वाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा ने अपनी प्रदेश इकाई को आंतरिक कलह, जमीनी स्तर पर असंतोष और बंगाली मतदाताओं के साथ ‘‘सांस्कृतिक अलगाव’’ के विमर्श से बाहर निकालने के लिए मृदुभाषी, आरएसएस के वफादार एवं पार्टी के दिग्गज नेता समिक भट्टाचार्य पर दांव लगाया है।
लेकिन, एक विशिष्ट बंगाली ‘भद्रलोक’ भट्टाचार्य के कार्यभार संभालने के साथ ही उनके सामने एक प्रमुख चुनौती यह है कि क्या उनके नेतृत्व में प्रदेश इकाई एक उदारवादी, समावेशी हिंदुत्व की राह पर चलती है या फिर शुभेंदु अधिकारी जैसे नेताओं द्वारा समर्थित उग्र और कट्टर रुख को जारी रखती है।
राज्यसभा सदस्य और भाजपा के सबसे मुखर बंगाली चेहरों में से एक भट्टाचार्य को हाल ही में सर्वसम्मति से पश्चिम बंगाल इकाई का अध्यक्ष चुना गया। इस कदम को गुटबाजी को शांत करने, हतोत्साहित कार्यकर्ताओं में नयी जान फूंकने और राज्य में मतदाताओं के साथ सांस्कृतिक जुड़ाव एवं वैचारिक स्पष्टता के अभाव की बढ़ती धारणा को दूर करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है।
भट्टाचार्य ने पदभार ग्रहण करने के बाद ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘पार्टी किसी भी व्यक्ति से ऊपर है। मेरा ध्यान संगठन को मजबूत करने और सभी स्तरों पर संपर्क स्थापित करने पर होगा। पश्चिम बंगाल को तृणमूल कांग्रेस द्वारा अपनाई जा रही हिंसा, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता की राजनीति के मद्देनजर बेहतर विकल्प की जरूरत है।’’
हालांकि, राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि केवल बयानबाजी ही पर्याप्त नहीं होगी। उनका मानना है कि बंगाल में भाजपा आंतरिक और चुनावी दोनों ही तरह की गंभीर चुनौतियों का सामना कर रही है।
भट्टाचार्य ने भाजपा को एक समावेशी शक्ति के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया है, जो इसके कुछ नेताओं के तीखे तेवरों से अलग है।
भट्टाचार्य ने हाल ही में कहा था, ‘‘भाजपा की लड़ाई राज्य के अल्पसंख्यकों के खिलाफ नहीं है। अल्पसंख्यक परिवारों के युवा लड़के जो पत्थर लेकर घूम रहे हैं – हम उनसे पत्थर छीनकर उन्हें किताबें देना चाहते हैं। हम उनकी तलवारें छीनकर उन्हें कलम देना चाहते हैं। हम एक ऐसे बंगाल की कल्पना करते हैं जहां दुर्गा पूजा की शोभायात्रा और मुहर्रम का जुलूस बिना किसी संघर्ष के साथ-साथ आयोजित किए जाएं।’’
यह टिप्पणी मध्यम वर्ग के शहरी मतदाताओं, उदार लोगों और युवाओं को अपने पक्ष में करने के लिए एक सचेत प्रयास का हिस्सा प्रतीत होती है, ये वे समूह हैं जो 2021 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार की वजह बने।
इस संबंध में एक भाजपा नेता ने कहा कि पार्टी को बंगाल की अनूठी राजनीतिक संस्कृति को प्रतिबिंबित करना चाहिए।
उन्होंने कहा, ‘‘हम समुदायों को अलग-थलग करके बंगाल में आगे नहीं बढ़ सकते। अगर हम चाहते हैं कि मध्यम वर्ग के बंगाली हिंदू, उदार लोग और यहां तक कि पहली बार वोट देने वाले युवा भी हमारा समर्थन करें, तो हमें यह दिखाना होगा कि हम सबको साथ लेकर चल सकते हैं और समावेशिता की भाषा बोल सकते हैं।’’
लेकिन, पार्टी में हर कोई इससे सहमत नहीं है।
पार्टी के आक्रामक हिंदुत्व के चेहरे और विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी के एक करीबी नेता ने कहा, ‘‘बंगाल के मतदाता स्पष्टता चाहते हैं। अगर हम उन्हें आधे-अधूरे संदेश से भ्रमित करते हैं, तो हम अपने मूल और निर्णायक मतदाताओं को खो देंगे।’’
अल्पसंख्यक मतदाताओं की संख्या लगभग 30 प्रतिशत है तथा वे 294 विधानसभा सीटों में से लगभग 120 पर निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।
राजनीतिक विश्लेषक मैदुल इस्लाम ने ‘पीटीआई-भाषा’ को बताया कि भट्टाचार्य का संदेश बंगाल में भाजपा की स्थिति में बदलाव का संकेत देता है।
उन्होंने कहा, ‘‘भट्टाचार्य ने जो कहा – भाजपा अल्पसंख्यकों की दुश्मन नहीं है और बहुलवाद की रक्षा करना चाहती है – वो बात बंगाल इकाई के लिए कुछ नयी है तथा शुभेंदु अधिकारी और अन्य लोगों ने जो कहा है, उसके बिलकुल विपरीत है। यह देखना अभी बाकी है कि भट्टाचार्य उदारवादी हिंदुत्व को पार्टी का प्रमुख विमर्श बना पाते हैं या नहीं।’’
तृणमूल लंबे समय से भाजपा पर बंगाल के सांस्कृतिक लोकाचार से अलग ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ मॉडल को बढ़ावा देने का आरोप लगाती रही है।
हालांकि, भाजपा प्रदेश इकाई के पूर्व अध्यक्ष सुकांत मजूमदार ने इस तरह की आलोचना को खारिज कर दिया। उन्होंने कहा, ‘‘बंगाली संस्कृति पर किसी का एकाधिकार नहीं है। भाजपा हर उस बंगाली का प्रतिनिधित्व करती है जो विकास और सम्मान चाहता है।’’
इस बीच, तृणमूल कांग्रेस अपने रुख पर कायम है। तृणमूल नेता कुणाल घोष ने कहा, ‘‘भाजपा अब भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की ‘हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान’ विचारधारा से प्रेरित है। समिक भट्टाचार्य इसे छिपा नहीं सकते।’’
वर्ष 2021 के विधानसभा चुनाव में, तृणमूल ने भाजपा के हिंदुत्व के विमर्श का मुकाबला करने के लिए ‘बंगाली अस्मिता’ का मुद्दा उठाया और इसे बाहरी लोगों की पार्टी करार दिया।
इस्लाम का कहना है, ‘‘भट्टाचार्य की मृदुभाषी, विद्वान छवि, बंगाली साहित्य में महारत और आरएसएस की पृष्ठभूमि उन्हें वैचारिक केंद्र और व्यापक बंगाली मतदाताओं के बीच एक सेतु के रूप में स्थापित करती है। हालांकि, अकसर ‘बाहरी ताकत’ के रूप में करार दी जाने वाली पार्टी के लिए स्थानीय स्तर पर जुड़ाव हासिल करना आसान नहीं होगा।’’
भट्टाचार्य के सामने एक और महत्वपूर्ण मुद्दा अंदरूनी कलह है। 2021 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद से, भाजपा के पुराने नेताओं और तृणमूल के दलबदलुओं के बीच गुटबाजी ने संगठन की एकता को कमजोर किया है।
भाषा शफीक नेत्रपाल
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