नयी दिल्ली, पांच जुलाई (भाषा) जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने पर्यावरण मंत्रालय से इस दावे के समर्थन में वैज्ञानिक साक्ष्य उपलब्ध कराने को कहा है कि वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 के तहत भूमि अधिकार प्रदान करने से वनों का क्षरण हुआ है।
मंत्रालय ने चेतावनी दी है कि ऐसे बयान ‘‘भ्रामक मान्यता को मजबूत’’ और कानून को ‘‘कमजोर’’ कर सकते हैं।
जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने दो जुलाई को पर्यावरण मंत्रालय के सचिव को संबोधित कार्यालय ज्ञापन में कहा, ‘‘भारत वन स्थिति रिपोर्ट (आईएफएसआर) 2023 से वनों में नकारात्मक बदलाव कारकों से संकेत मिलता है कि ‘‘वन अधिकार अधिनियम (2006) के तहत लाभार्थियों को दिए गए अधिकारों’’ भी इनमें से एक है।’’
इसमें कहा गया है कि पर्यावरण मंत्रालय को ‘‘इस दावे के समर्थन में एक विस्तृत वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करना चाहिए, जिसमें जमीनी स्तर पर वैध उदाहरण दिए जाएं, जैसा कि रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है।’’
कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने सोशल मीडिया मंच ‘एक्स’ पर एक ज्ञापन साझा करते हुए कहा कि 150 से अधिक नागरिक समाज समूहों और कार्यकर्ताओं ने 26 जून को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पर्यावरण मंत्रालय द्वारा एफआरए को ‘‘जानबूझकर नष्ट करने’’ के बारे में पत्र लिखा था, ‘‘जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने अब पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय से स्पष्टीकरण मांगा है कि कैसे और क्यों भारतीय वन सर्वेक्षण ने अच्छी गुणवत्ता वाले वन क्षेत्रों के नुकसान के लिए एफआरए को जिम्मेदार ठहराया है’’।
पर्यावरण मंत्रालय ने शुक्रवार को वन अधिकार समूहों के आरोपों को दृढ़ता से खारिज करते हुए इन्हें ‘‘तथ्यों को लेकर गलतफहमी’’ बताया। साथ ही रेखांकित किया कि वह पर्यावरण संरक्षण तथा वन-आश्रित समुदायों के कल्याण के लिए प्रतिबद्ध है।
जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने आईएसएफआर 2023 के अध्याय 2 और आईएसएफआर डेटा का हवाला देते हुए पांच जून की खबर के जवाब में यह ज्ञापन जारी किया।
मंत्रालय ने कहा कि एफआरए ‘‘अतिक्रमणों के नियमितीकरण से संबंधित नहीं है’’ बल्कि इसे 13 दिसंबर 2005 से पहले जंगलों में रहने वाले पात्र व्यक्तियों और समुदायों के पहले से मौजूद अधिकारों को मान्यता देने के लिए अधिनियमित किया गया था।
मंत्रालय ने कहा कि अधिनियम ‘‘पूर्व-विद्यमान अधिकारों को स्वीकार करता है, जिनका प्रयोग पात्र व्यक्तियों और समुदायों द्वारा वन क्षेत्रों में निवास करते हुए किया जा रहा है, जिसमें राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य शामिल हैं, जैसा कि अधिनियम की प्रस्तावना में कहा गया है।’’
पत्र में कहा गया है, ‘‘मौजूदा वनवासियों के स्वामित्व को सुरक्षित करने के अलावा, एफआरए किसी भी नए अधिकार का सृजन नहीं करता है, जो संरक्षित क्षेत्रों के भीतर पारिस्थितिकी संतुलन को प्रभावित कर सकता हो।’’
जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने चिंता व्यक्त की कि वन अधिकार अधिनियम के अधिकारों को वन क्षरण से जोड़ने से ‘‘जिला प्रशासन और वन प्रशासन सहित राज्य सरकारों के बीच भ्रामक मान्यताओं को बल मिल सकता है, जो अधिनियम के तहत निहित अधिकारों के साथ-साथ अधिनियम के कार्यान्वयन की प्रभावशीलता को भी कमजोर कर सकता है’’।
भाषा धीरज रंजन
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