(बेदिका)
नयी दिल्ली, आठ जुलाई (भाषा) गुरु दत्त जब मृत पाए गए तब उनकी उम्र महज 39 वर्ष थी। उन्होंने सिर्फ आठ फिल्मों का निर्देशन किया और ‘प्यासा’ के उस अंतिम शॉट के लिए 104 टेक लिए गए, जहां कवि नायक ‘प्रकाश और छाया’ के बीच खड़ा होकर पूछता है ‘‘ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है?’’
उनके जीवन को संभवतः इन तीन अंकों में समेटा जा सकता है – एक अत्यंत प्रतिभाशाली फिल्म निर्माता और अभिनेता, जिनकी मृत्यु शराब और नींद की गोलियों के मिश्रण से बहुत कम उम्र में हो गई तथा जिनकी फिल्म सहज-सरल से अंधकारमय और व्यक्तिगत हो गईं, जिनमें उनकी अपनी उथल-पुथल और आत्म-संघर्ष झलकता है।
भारत के सर्वाधिक प्रभावशाली अभिनेताओं-निर्माताओं में से एक गुरुदत्त की नौ जुलाई को 100वीं जयंती है। यह सिनेमा प्रेमियों और अन्य लोगों के लिए उस व्यक्ति के काम का जश्न मनाने का अवसर है, जिसने पर्दे पर जादू बिखेरा और जो इतने वर्षों बाद भी एक रहस्य जैसा बना हुआ है।
शायद ही कभी कोई ऐसा व्यक्तित्व हुआ हो जिसका जीवन और काम दोनों ही दुखद घटनाओं से भरा हुआ हो, जिसने इतना गहरा प्रभाव छोड़ा हो और इतने सारे अनुत्तरित प्रश्न छोड़े हों। उनकी फ़िल्मों, जिनमें से कुछ उन्होंने खुद बनाईं और कुछ उन्होंने खुद निर्देशित कीं, उनमें ‘कागज़ के फूल’, ‘बाज़ी’, ‘आर पार’, ‘चौदहवीं का चांद’, ‘साहिब बीबी और गुलाम’ तथा ‘प्यासा’ शामिल हैं।
‘प्यासा’ में दत्त की भूमिका दुखी कवि विजय के रूप में न केवल एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में उनकी कलात्मक निपुणता को दर्शाती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि वह संभवतः एक ऐसे व्यक्ति थे जो समाज और उसके नियमों से असहमत एक जुनूनी और समझौता न करने वाले थे।
उनकी जीवनी ‘गुरु दत्त: एन अनफिनिश्ड स्टोरी’ में लेखक यासिर उस्मान ने अपने करीबी दोस्त देव आनंद के हवाले से लिखा है कि अगर दत्त को कुछ सही नहीं लगता था तो वह बहुत कुछ दोबारा शूट करते थे और अधिकांश को हटा देते थे।
उस्मान लिखते हैं, ‘‘जब उन्होंने 1957 में ‘प्यासा’ बनाई, तब तक अनिर्णय की स्थिति कई गुना बढ़ चुकी थी। वह लगातार शूटिंग करते रहते थे और उन्हें यकीन नहीं होता था कि किसी खास दृश्य में वह क्या चाहते हैं। यहां तक कि ‘प्यासा’ के मशहूर ‘क्लाइमेक्स सीक्वेंस’ के लिए उन्होंने खुद भी 104 टेक शूट किए थे!’’
‘प्यासा’ में वह मोहभंग है जो उनकी पिछली निर्देशित फिल्म ‘कागज़ के फूल’ में भी दिखाई देता है। यह एक निर्देशक की अर्ध-आत्मकथात्मक कहानी है जो समझौता करने को तैयार नहीं है। उन्होंने यह फिल्म तब बनाई थी जब उनकी पत्नी गीता दत्त के साथ उनके रिश्ते मुश्किल दौर से गुज़र रहे थे। वह इस फिल्म की असफलता से कभी उबर नहीं पाए, जिसे उन्होंने ‘‘मृत शिशु’’ कहा था।
इसके बाद वह अवसाद में डूब गए और अपने मित्रों से कहा कि उनमें सफल फिल्म निर्देशित करने की क्षमता नहीं है।
दत्त दंपति के बीच विवाह परीकथा जैसा नहीं रहा जैसा लोगों ने सोचा था। गुरु दत्त जहां निर्देशक थे तो गीता शीर्ष पार्श्व गायिका थीं जिन्होंने उनकी फिल्मों में एक के बाद एक शानदार प्रस्तुतियां दीं।
गुरु दत्त की बहन ललिता लाजमी ने उस्मान को दिए एक साक्षात्कार में कहा, ‘‘गुरु और गीता दत्त को एहसास हो गया था कि उनकी शादी ठीक से नहीं चल रही है। गीता दत्त भी शराब और नींद की गोलियों का सेवन करने लगी थीं।’’
गुरु दत्त ने दो बार आत्महत्या करने की कोशिश की। एक बार ‘प्यासा’ के निर्माण के दौरान और फिर कुछ साल बाद जब ‘साहिब, बीबी और गुलाम’ (1962) का निर्माण हो रहा था।
द प्रिंट के लिए उस्मान के लेख में उन्होंने कहा, ‘‘दूसरी बार, नींद की गोलियों की ‘ओवरडोज’ हो गई थी… वह तीन दिन तक बेहोश रहे। फिर, चौथे दिन, हमने उनकी चीख सुनी। सबसे पहले उन्होंने गीता के बारे में पूछा। यह अजीब था क्योंकि उनका रिश्ता नरक से गुज़र रहा था।’’
गुरुदत्त का निधन 10 अक्टूबर 1964 को हुआ। गीता दत्त का निधन आठ साल बाद 20 जुलाई 1972 को 41 वर्ष की आयु में लीवर सिरोसिस के कारण हुआ था।
व्यक्तिगत उथल-पुथल निर्देशक के काम में भी व्याप्त थी। अभिनेता और फिल्म निर्माता के रूप में उनकी कई फिल्म भाग्यवाद और निराशा से भरी हुई थीं।
दपंति के तीन बच्चे थे – तरुण, अरुण और नीना।
उनके बेटे अरुण दत्त ने ‘वाइल्डफिल्म्सइंडिया’ के साथ एक साक्षात्कार में कहा कि उनके पिता ‘प्यासा’ के विजय और ‘कागज़ के फूल’ के सुरेश सिन्हा का मिश्रण थे, जो एक गंभीर और उदास व्यक्तित्व थे।
अपनी मृत्यु से पहले, वह ‘बहारें फिर भी आएंगी’ का निर्माण कर रहे थे और इसमें अभिनय भी कर रहे थे, जो अंततः 1966 में रिलीज हुई। इसे धर्मेन्द्र को मुख्य भूमिका में लेकर पुनः फिल्माया गया।
गुरु दत्त का जन्म वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण और वसंती पादुकोण के यहां नौ जुलाई 1925 को बैंगलोर में हुआ था। वह चार बच्चों में सबसे बड़े थे, लेकिन उन्होंने अपने प्रारंभिक वर्ष कोलकाता में बिताए, जहां उन्होंने न केवल भाषा सीखी, बल्कि वहां की संस्कृति से भी गहरा जुड़ाव महसूस किया।
उनकी बहन ने उस्मान की किताब में बताया है कि उनका बचपन काफी परेशानियों भरा था।
गुरु दत्त बाद में पुणे में प्रभात फिल्म कंपनी में कॉरियोग्राफर और सहायक निर्देशक के रूप में शामिल हो गए। यहीं उनकी मुलाकात देव आनंद से हुई, जो बाद में उनके करीबी दोस्त बन गए।
देव आनंद ने 1951 में उन्हें ‘बाज़ी’ को निर्देशित करने के लिए चुना, जो उस समय बहुत सफल रही।
अभिनेता-लेखक बलराज साहनी द्वारा लिखी गई इस फिल्म में अधिकतर गीतों में गीता दत्त की आवाज़ थी।
यहीं गीता और गुरु दत्त की मुलाकात हुई और वे एक-दूसरे से प्यार करने लगे। दो साल बाद 1953 में उन्होंने शादी कर ली। 1954 में, गुरु दत्त ने ‘आर पार’ में अभिनय और निर्देशन किया।
इसके बाद उन्होंने मधुबाला के साथ ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ का निर्देशन और इसमें अभिनय किया।
‘प्यासा’ गुरुदत्त की निर्देशन शैली में एक बदलाव का प्रतीक थी क्योंकि उन्होंने इस स्वप्निल परियोजना में अपना सबकुछ झोंक दिया और वहीदा रहमान को वापस ले लिया, जो नयी अभिनेत्री थीं जिन्हें उन्होंने ‘सीआईडी’ के लिए खोजा था। इन दोनों की जोड़ी हिंदी सिनेमा की सबसे सफल जोड़ियों में से एक बन गई।
उनकी कई फिल्म, चाहे वे सुखद हों या दुखद, दो महिलाओं के बीच फंसे संघर्षरत नायक के इर्द-गिर्द घूमती हैं।
भाषा नेत्रपाल पवनेश
पवनेश