हैदराबाद, 12 जुलाई (भाषा) प्रधान न्यायाधीश बी.आर. गवई ने शनिवार को कहा कि भारतीय न्याय व्यवस्था अनोखी चुनौतियों का सामना कर रही है और मुकदमों में कभी-कभी कई दशकों की देरी हो सकती है।
नालसार विधि विश्वविद्यालय, हैदराबाद में दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए न्यायमूर्ति गवई ने छात्रों को सलाह दी कि वे छात्रवृत्ति पर विदेश जाकर अध्ययन करें और परिवार पर वित्तीय बोझ नहीं डालें।
उन्होंने कहा, ‘‘हमारा देश और न्याय व्यवस्था अनोखी चुनौतियों का सामना कर रही है। मुकदमों में देरी कभी-कभी दशकों तक चल सकती है। हमने ऐसे मामले देखे हैं जहां विचाराधीन कैदी के रूप में कई वर्ष जेल में बिताने के बाद भी कोई व्यक्ति निर्दोष पाया गया है। हमारी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं हमें उन समस्याओं का समाधान करने में मदद कर सकती हैं जिनका हम सामना कर रहे हैं।’’
प्रधान न्यायाधीश ने इस संबंध में अमेरिका के वरिष्ठ संघीय जिला न्यायाधीश जेड एस राकॉफ का हवाला दिया।
अमेरिकी न्यायाधीश ने अपनी पुस्तक ‘क्यों निर्दोष दोषी ठहराए जाते हैं एवं दोषी मुक्त हो जाते हैं: और हमारी टूटी हुई कानूनी व्यवस्था के अन्य विरोधाभास’’ में लिखा था, ‘‘हालांकि मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि हमारी न्याय व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता है, फिर भी मैं पूरी तरह से आशावादी हूं कि मेरे साथी (नागरिक) इस चुनौती का सामना करेंगे।’’
अमेरिकी न्यायाधीश की इस टिप्पणी को प्रधान न्यायाधीश गवई ने उद्धृत किया।
बाद में, यहां उस्मानिया विश्वविद्यालय में ‘भारतीय संविधान के निर्माण में बाबासाहेब डॉ. बी.आर. आंबेडकर की भूमिका’ विषय पर व्याख्यान देते हुए न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि पिछले 75 वर्षों के दौरान देश को एकजुट और मजबूत बनाए रखने में संविधान का योगदान अमूल्य है।
प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि डॉ. आंबेडकर की आलोचना इस बात के लिए की गई थी कि “संविधान बहुत ज़्यादा संघीय है” और यह भी कि यह “बहुत ज़्यादा केंद्रित” है। संविधान निर्माता ने ऐसे आरोपों का खंडन किया और कहा कि “संविधान न तो बहुत ज्यादा केंद्रित है और न ही बहुत ज्यादा संघीय, बल्कि हम देश को एक ऐसा संविधान दे रहे हैं (जो) युद्ध और शांति के समय में देश को एकजुट रखेगा।”
न्यायमूर्ति गवई ने आगे कहा, “हम देखते हैं कि पिछले 75 वर्षों की यात्रा में, हालांकि कई बाहरी आक्रमण हुए, कई आंतरिक गड़बड़ियां हुईं, लेकिन भारत हमेशा मजबूत और एकजुट रहा है।”
उन्होंने कहा, “आइये हम सब संविधान निर्माताओं के राजनीतिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक और सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लक्ष्य को आगे बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध हों और यह सुनिश्चित करें कि न्याय देश के अंतिम और सबसे जरूरतमंद नागरिक तक पहुंचे।”
न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि उन्हें उस्मानिया विश्वविद्यालय का दौरा करने का सौभाग्य मिला, जिसने 1953 में आंबेडकर को डी.लिट की उपाधि से सम्मानित किया था।
नालसर विधि विश्वविद्यालय में अपने संबोधन में मुख्य न्यायाधीश ने उत्तीर्ण स्नातकों को सलाह दी कि वे गुरुओं की तलाश उनकी ईमानदारी के लिए करें, न कि उनकी शक्ति के लिए। “विदेश में मास्टर डिग्री हासिल करने के दबाव” पर न्यायमूर्ति गवई ने कहा, “सिर्फ एक विदेशी डिग्री आपकी योग्यता पर मुहर नहीं है। यह फैसला बिना सोचे-समझे या अपने साथियों के दबाव में न लें। इसके बाद क्या होगा? बरसों का कर्ज, चिंता, आर्थिक बोझ तले करियर के फैसले।”
उन्होंने कुछ युवा स्नातकों या वकीलों का उदाहरण दिया, जो विदेश में शिक्षा के लिए 50-70 लाख रुपये तक का ऋण लेते हैं। वास्तव में, 50-70 लाख रुपये जैसी बड़ी राशि का एक छोटा सा हिस्सा स्वतंत्र प्रैक्टिस शुरू करने या कार्यालय कक्ष बनाने के लिए निवेश के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि युवा वकील जीवन के बाद के चरण में, जब वे स्थिर हो जाएं तो पढ़ाई के लिए विदेश जा सकते हैं।
न्यायमूर्ति गवई ने कहा कि विदेश जाने की बढ़ती प्रवृत्ति एक संरचनात्मक मुद्दे को भी दर्शाती है, जो हमारे देश में स्नातकोत्तर कानूनी शिक्षा और अनुसंधान की स्थिति में विश्वास की कमी को दर्शाती है।
विदेश में अध्ययन करने वाले कई लोग नए जोश और नए दृष्टिकोण के साथ वापस आते हैं, लेकिन जब वे वापस आते हैं, तो अक्सर पाते हैं कि संस्थान में उनका स्वागत नहीं होता जहां संसाधन की कमी है या नए विचारों के प्रति उदासीनता है।
पोस्टडॉक्टरल शोध के लिए कुछ ही संरचित रास्ते हैं, शुरुआती करियर वाले विद्वानों के लिए सीमित धनराशि है और अपारदर्शी नियुक्ति प्रक्रियाएं हैं जो सर्वाधिक प्रतिबद्ध लोगों को भी हतोत्साहित कर देती हैं।
उन्होंने कहा, “अगर हम अपनी सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं को बनाए रखना चाहते हैं या उन्हें वापस लाना चाहते हैं, तो इसमें बदलाव लाना होगा। हमें एक सृजनात्मक शैक्षणिक वातावरण बनाना होगा, पारदर्शी और योग्यता-आधारित अवसर प्रदान करने होंगे, और सबसे महत्वपूर्ण बात, भारत में कानूनी शोध और प्रशिक्षण की गरिमा और उद्देश्य को बहाल करना होगा।”
कानूनी पेशेवरों के समक्ष आने वाले मानसिक दबाव के मुद्दे पर उन्होंने कहा कि काम के घंटे लंबे होते हैं, अपेक्षाएं अधिक होती हैं और संस्कृति कभी-कभी “निर्मम” होती है।
भारत की कानूनी विरासत का सिर्फ जश्न मनाना ही काफी नहीं है; इसके भविष्य का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। भविष्य इस बात पर निर्भर करता है कि शोधकर्ताओं, युवा शिक्षकों, वकीलों और विद्वानों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है।
इस अवसर पर मुख्यमंत्री ए. रेवंत रेड्डी और उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा भी मौजूद थे। तेलंगाना उच्च न्यायालय के कार्यवाहक मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति सुजॉय पॉल ने दीक्षांत समारोह की अध्यक्षता की।
भाषा प्रशांत माधव
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