नयी दिल्ली, 14 जुलाई (भाषा) उच्चतम न्यायालय उन दस दोषियों की याचिका पर विचार करने के लिए सोमवार को सहमत हो गया, जिनमें से छह को मौत की सजा सुनाई गई है।
इन दोषियों ने कहा है कि झारखंड उच्च न्यायालय ने दो-तीन साल पहले फैसला सुरक्षित रखने के बावजूद उनकी दोषसिद्धि के खिलाफ अपील पर फैसला अब तक नहीं सुनाया।
न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ ने झारखंड सरकार को नोटिस जारी कर दोषियों की याचिका पर जवाब तलब किया है।
दोषियों की ओर से पेश वकील फौजिया शकील ने कहा कि उनके मुवक्किल ने निचली अदालत द्वारा उन्हें सुनाई गई सजा और उनकी दोषसिद्धि के खिलाफ उच्च न्यायालय में अपील दायर की थी, जिसने 2022 और 2023 में दलीलें सुनने के बाद अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
उन्होंने कहा कि 10 में से नौ दोषी रांची के होटवार स्थित बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार में कैद हैं, जबकि एक दुमका स्थित केंद्रीय कारागार में बंद है।
शकील ने शीर्ष अदालत के पिछले फैसलों के अनुरूप इसे सजा निलंबित करने का ‘उचित मामला’ बताया।
पीठ ने कहा कि सभी 10 मामलों में अपीलों की सुनवाई करने वाले उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एक ही थे।
दोषियों ने दलील दी कि याचिकाकर्ता संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इस न्यायालय के असाधारण अधिकार क्षेत्र के इस्तेमाल के लिए बाध्य हैं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उनके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार और अनुच्छेद 21 से प्राप्त सभी अधिकारों की रक्षा हो।
आजीवन कारावास की सजा काट रहे चार दोषियों ने भी आदेश सुरक्षित रखने के बाद वर्षों तक फैसला न सुनाने के लिए उच्च न्यायालय के खिलाफ ऐसी ही दलील दी।
याचिका में कहा गया है, ‘‘वर्तमान याचिकाकर्ताओं को दोषी ठहराया गया है और उन्हें मृत्युदंड या आजीवन कठोर कारावास की सजा सुनाई गई है। यह ध्यान देने योग्य है कि उनमें से प्रत्येक ने 6 साल से लेकर 16 साल से अधिक की वास्तविक हिरासत अवधि काटी है।’’
इसमें कहा गया है कि याचिकाकर्ताओं और उनके परिवारों ने झारखंड उच्च न्यायालय द्वारा फैसले न सुनाए जाने का मुद्दा मुख्य न्यायाधीश सहित कई अन्य प्राधिकारियों के समक्ष बार-बार उठाने की कोशिश की है, लेकिन उनके प्रयासों का कोई जवाब नहीं मिला है।
याचिका में कहा गया है कि झारखंड उच्च न्यायालय के नियमों में भी बहस पूरी होने के छह सप्ताह के भीतर सुरक्षित रखे गए फैसलों का निपटारा करने का प्रावधान है।
शीर्ष अदालत ने पांच मई को उच्च न्यायालय पर नाराजगी जताई और सभी उच्च न्यायालयों से एक महीने के भीतर उन मामलों पर रिपोर्ट मांगी थी, जिनमें 31 जनवरी या उससे पहले फैसले सुरक्षित रखे गए थे।
उच्चतम न्यायालय ने इन अदालतों द्वारा इस तरह फैसले न सुनाए जाने को ‘बेहद परेशान करने वाला मुद्दा’ बताते हुए कहा था कि वह उच्च न्यायालयों के लिए कुछ अनिवार्य दिशानिर्देश निर्धारित करेगा।
भाषा सुरेश माधव
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