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Tuesday, July 15, 2025

दक्षिणी गोलार्ध में पाई जाती हैं पक्षियों की दुर्लभ प्रजातियां, संरक्षण में हो रही अनदेखी : अध्ययन

Newsदक्षिणी गोलार्ध में पाई जाती हैं पक्षियों की दुर्लभ प्रजातियां, संरक्षण में हो रही अनदेखी : अध्ययन

मैथियाज देहलिंग, मोनाश यूनिवर्सिटी

मेलबर्न, 15 जुलाई (द कन्वरसेशन) बर्फ सी सफेद, काली आंखों और काली चोंच वाली ‘स्नो पेट्रल’ उन केवल तीन पक्षी प्रजातियों में शामिल है जिन्हें कभी दक्षिणी ध्रुव पर देखा गया है। दरअसल, अंटार्कटिका ही वह एकमात्र स्थान है जहां यह पक्षी पाया जाता है।

यह अकेली ऐसी प्रजाति नहीं है। अंटार्कटिका और उप-अंटार्कटिक क्षेत्रों में बड़ी संख्या में ऐसी पक्षी प्रजातियां पाई जाती हैं जो केवल एक या कुछ गिने-चुने स्थानों तक सीमित हैं।

दूसरे शब्दों में कहें तो यह क्षेत्र ‘‘स्थानिकता’’ (एंडेमिज़्म) की दृष्टि से अत्यधिक समृद्ध हैं। यह एक महत्वपूर्ण मापदंड है जिससे यह तय किया जाता है कि किन क्षेत्रों में जैव विविधता संरक्षण के प्रयासों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

*** नया अध्ययन और अहम निष्कर्ष

मोनाश यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक मथायस डेलिंग द्वारा किए गए एक नए अध्ययन में पाया गया है कि अंटार्कटिका, उप-अंटार्कटिका और समग्र रूप से दक्षिणी गोलार्ध में पक्षियों की स्थानिकता को अब तक कम करके आंका गया है।

यह निष्कर्ष इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जिन क्षेत्रों में स्थानिकता अधिक होती है वहां की प्रजातियां विशेष रूप से सीमित दायरे में पाई जाती हैं। इनका अद्वितीय विकासक्रम होता है या ये पारिस्थितिक तंत्र में विशिष्ट भूमिका निभाती हैं। ऐसी प्रजातियां जलवायु परिवर्तन, आवास क्षरण या आक्रामक बाहरी प्रजातियों जैसी चुनौतियों के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकती हैं।

यदि इनकी वास्तविक संख्या और महत्व को नजरअंदाज किया जाए तो संरक्षण के प्रयासों से ऐसे महत्वपूर्ण स्थल वंचित हो सकते हैं, जहां ये अनोखी पक्षी प्रजातियां पाई जाती हैं।

*** मापन में पक्षपात

अध्ययन के अनुसार, वैश्विक स्तर पर स्थानिकता के मापन में दो प्रकार की गड़बड़ियां पाई जाती हैं। पहला, प्रचलित विधि उन क्षेत्रों को अधिक महत्व देती है जहां प्रजातियों की कुल संख्या अधिक होती है — जिसे ‘‘स्पीशीज़ रिचनेस’’ कहा जाता है।

दूसरा, अधिकतर वैश्विक अध्ययन, अपेक्षाकृत कम प्रजाति वाले क्षेत्रों को नजरअंदाज कर देते हैं — जैसे कि अंटार्कटिक क्षेत्र। जब इन कम प्रजातिवाले क्षेत्रों को छोड़ दिया जाता है, तो अन्य सभी क्षेत्रों की स्थानिकता का आकलन प्रभावित होता है।

इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने एक वैकल्पिक विधि — “कॉम्प्लिमेंटेरिटी” — का उपयोग किया, जो यह देखती है कि किसी क्षेत्र की प्रजातियां कहीं और पाई जाती हैं या नहीं। इस तरह वे स्थल सामने आते हैं जहां अधिकतर प्रजातियां अत्यंत सीमित दायरे में ही मौजूद होती हैं।

*** वैश्विक स्थानिकता के केंद्र

अध्ययन में यह पाया गया कि पक्षियों की जैव विविधता के विभिन्न पहलुओं में दक्षिणी गोलार्ध के क्षेत्रों में स्थानिकता की दर उत्तरी गोलार्ध के मुकाबले अधिक है।

उप-अंटार्कटिक द्वीप, उच्च एंडीज़, ऑस्ट्रेलिया, आओतेरोआ न्यूज़ीलैंड और दक्षिणी अफ्रीका जैसे क्षेत्र वैश्विक स्तर पर स्थानिकता के हॉटस्पॉट के रूप में उभरे हैं। यहां कई ऐसे पक्षी पाए जाते हैं जिनका विकासक्रम अद्वितीय या पारिस्थितिक महत्व अत्यधिक है। इनमें कीवी, एमू, कैसोवरी, शुतुरमुर्ग, लाइरबर्ड, न्यूज़ीलैंड रेन, पेंगुइन और अल्बाट्रॉस जैसी प्रजातियां शामिल हैं।

*** दक्षिणी गोलार्ध : भूमि कम, समुद्र अधिक

दक्षिणी गोलार्ध में अधिक स्थानिकता का कारण वहां की भौगोलिक स्थिति भी है। जहां उत्तरी गोलार्ध में भूमि अधिक फैली हुई है, वहीं दक्षिण की ओर जाते हुए भूमि छोटे-छोटे द्वीपों में बंटी होती है और उनके बीच विशाल समुद्री विस्तार होता है।

इससे वहां की प्रजातियों का भौगोलिक दायरा सीमित होता है और स्थानीय समुदायों में कम प्रजातियां साझा होती हैं, जिससे स्थानिकता अधिक हो जाती है।

*** दक्षिणी गोलार्ध की प्रजातियां अधिक जोखिम में

अध्ययन में यह भी कहा गया है कि उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध के पक्षी पर्यावरणीय दबावों के प्रति अलग-अलग तरीके से प्रतिक्रिया देते हैं।

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर अधिकतर अध्ययन अब तक केवल उत्तरी गोलार्ध पर केंद्रित रहे हैं। जब प्रजातियां ठंडी जलवायु की ओर खिसकती हैं तो उत्तर में वे बड़ी भूमि सतहों पर आसानी से आगे बढ़ सकती हैं, जबकि दक्षिणी गोलार्ध की प्रजातियां समुद्र से घिरी भूमि के कारण सीमित हो जाती हैं।

दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया के दक्षिणी सिरे पर पाई जाने वाली प्रजातियों के लिए अगला प्रमुख स्थल अंटार्कटिका है — जो अधिकतर पक्षियों के लिए उपयुक्त नहीं है।

अतः अध्ययन के अनुसार, दक्षिणी गोलार्ध की पक्षी प्रजातियां अधिक संवेदनशील हैं और उन्हें बेहतर संरक्षण की आवश्यकता है। इसके लिए उन क्षेत्रों को भी संरक्षण प्रयासों में शामिल किया जाना चाहिए, जहां भले ही कुल प्रजातियां कम हों, लेकिन वे अत्यंत स्थानिक और अपूरणीय हों।

द कन्वरसेशन मनीषा नरेश

नरेश

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