नयी दिल्ली, 16 जुलाई (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने वकीलों के सामने आने वाली समस्याओं, खासकर उनके विशेषाधिकारों के उल्लंघन को लेकर दायर एक याचिका पर केंद्र और अन्य से बुधवार को जवाब तलब किया।
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने शीर्ष अदालत के अधिवक्ता आदित्य गोरे की ओर से दायर याचिका पर केंद्र, बार काउंसिल ऑफ इंडिया (बीसीआई) और अन्य को नोटिस जारी किए।
गोरे केंद्र सरकार से साल 2014 से अधिवक्ता (संरक्षण) विधेयक को आगे बढ़ाने की मांग कर रहे हैं।
पीठ ने गोरे की याचिका को जांच एजेंसियों की ओर से मामलों की जांच के दौरान कानूनी राय देने या पक्षों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकीलों को तलब करने के मुद्दे पर लंबित स्वत: संज्ञान मामले के साथ संलग्न कर दिया।
गोरे की ओर से पेश वकील निशांत आर कटनेश्वरकर ने कहा, ‘‘याचिकाकर्ता एक वकील हैं और वह लगभग 11 वर्षों से बार काउंसिल सहित संबंधित प्राधिकारियों से इस विधेयक का मसौदा तैयार करने का अनुरोध कर रहे हैं।’’
पीठ ने कहा कि विधेयक विचाराधीन है।
याचिका में वकीलों के विशेषाधिकारों की सुरक्षा के मकसद से अधिवक्ता अधिनियम, 1961 की धारा 10(3) और अन्य प्रासंगिक प्रावधानों के तहत संबंधित अधिकारियों को एक समिति गठित करने का निर्देश देने का अनुरोध किया गया है।
अधिनियम की धारा 10 अनुशासन समितियों के अलावा अन्य समितियों के गठन से संबंधित है।
याचिका में कहा गया है कि अधिवक्ता (संरक्षण) विधेयक के भारतीय विधि आयोग के समक्ष विचाराधीन रहने के दौरान याचिकाकर्ता ने अधिवक्ता अधिनियम की धारा 7(डी) के तहत अपनी शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए अधिवक्ताओं के विशेषाधिकारों की रक्षा से जुड़े नियम लागू करने के लिए बीसीआई को पत्र लिखा था।
इसमें कहा गया है, ‘‘मौजूदा याचिका, जो जनहित में दायर की जा रही है, विभिन्न घटनाओं के कारण आवश्यक हो गई है, जिनसे पता चलता है कि बार काउंसिल के लिए विशेषाधिकारों के उल्लंघन से जुड़ी चिंताओं को संबोधित करना और ऐसे उल्लंघनों से अधिवक्ताओं की सुरक्षा के लिए प्रभावी उपाय करना जरूरी है।’’
याचिका में कहा गया है कि एक प्रभावी न्याय व्यवस्था के लिए यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि वकीलों के विशेषाधिकारों का उल्लंघन न हो, ताकि वे बिना किसी डर के और स्वतंत्र रूप से अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें।
इसमें वकीलों पर हमले से जुड़ी घटनाओं का भी जिक्र किया गया है।
याचिका में कहा गया है, ‘‘वकीलों पर हमले से न केवल अधिवक्ताओं की व्यक्तिगत गरिमा प्रभावित होती है, बल्कि इससे न्याय प्रशासन की प्रतिष्ठा और कार्यक्षमता पर भी बुरा असर पड़ता है।’’
भाषा पारुल नरेश
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