नयी दिल्ली, 18 जुलाई (भाषा) एक नयी किताब में दावा किया गया है कि 1977 में इजराइल के तत्कालीन विदेश मंत्री मोशे दयान अपना नाम-पहचान बदलकर उस समय प्रधानमंत्री रहे मोरारजी देसाई और विदेश मंत्री रहे अटल बिहारी वाजपेयी से मिलने एक गोपनीय यात्रा पर भारत आए, ताकि नयी दिल्ली के साथ राजनयिक संबंध स्थापित कर सकें।
किताब में कहा गया है कि हालांकि, दयान को अपने मिशन में कामयाबी नहीं मिली और उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ा।
अभिषेक चौधरी ने ‘बिलीवर्स डायलेमा : वाजपेयी एंड हिंदू राइट्स पाथ टू पावर’ में लिखा है कि यात्रा के निष्कर्ष से खफा दयान ने भारतीय मेजबानों की ओर से उपहार में दिए गए चांदी के बर्तन स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।
‘बिलीवर्स डायलेमा : वाजपेयी एंड हिंदू राइट्स पाथ टू पावर’ चौधरी की पुरस्कार विजेता बेस्टसेलर किताब ‘वाजपेयी : द एसेंट ऑफ द हिंदू राइट’ की अगली कड़ी है। यह भारत-इजराइल संबंधों के एक कम ज्ञात अध्याय को उजागर करती है।
किताब में कहा गया है कि दयान ‘भारत की गरीबी का मजाक उड़ाते हुए और इसके शासकों की नैतिक कायरता को कोसते हुए’ इजराइल लौट गए थे।
चौधरी के मुताबिक, यह ‘असहज बैठक’ इस बात का संकेत थी कि अपनी तमाम महत्वाकांक्षाओं के बावजूद तत्कालीन जनता पार्टी की सरकार के पास भारत की विदेश नीति में बदलाव लाने के लिए न तो जनादेश था और न ही भरोसा।
उन्होंने लिखा कि दयान की भारत यात्रा ‘अति गोपनीय’ थी, क्योंकि देसाई को डर था कि अगर यह सार्वजनिक हो गई, तो जनता पार्टी की सरकार गिर जाएगी।
चौधरी के अनुसार, नयी दिल्ली के एक ‘साधारण सरकारी आवास’ में हुई यह बैठक इतनी गोपनीय थी कि वाजपेयी को इसकी जानकारी दयान के पहुंचने के बाद ही मिली और यहां तक कि (तत्कालीन) विदेश सचिव जगत मेहता को भी कुछ नहीं बताया गया था।
उन्होंने किताब में लिखा, ’14 अगस्त की दोपहर को इजराइली विदेश मंत्री मोशे दयान नयी दिल्ली पहुंचे। वह एक फर्जी नाम से यात्रा कर रहे थे और अपनी पहचान छिपाने के लिए उन्होंने काला चश्मा व पुआल की टोपी पहन रखी थी। उन्हें दक्षिणी दिल्ली के सफदरजंग एन्क्लेव में एक निजी आवास में ठहराया गया था।’
किताब के मुताबिक, दयान की यात्रा का मकसद ‘भारत और इजराइल के बीच राजनयिक संबंध स्थापित करने के लिए वार्ता को आगे बढ़ाना था।’
भारत ने इजराइल को 1950 में मान्यता दे दी, लेकिन उसके साथ पूर्ण राजनयिक संबंध 29 जनवरी 1992 को स्थापित किए।
किताब के अनुसार, ‘गुटनिरपेक्ष आंदोलन के संस्थापक सदस्य के रूप में भारत का गुटनिरपेक्ष राष्ट्रों के बीच महत्वपूर्ण प्रभाव था। दयान को कम से कम गुटनिरपेक्ष आंदोलन में इजरायल-मिस्र शांति योजनाओं के लिए भारत का समर्थन मिलने की उम्मीद थी, जिससे अरब समुदाय के लिए भारत का दीर्घकालिक समर्थन बेअसर हो जाएगा।’
इसमें दावा किया गया है, ‘भारत के अनुरोध पर इस बैठक को पूरी तरह गोपनीय रखा गया। किसी अन्य कैबिनेट मंत्री और यहां तक कि विदेश सचिव मेहता को भी इसकी भनक नहीं लगी। मोरारजी देसाई को लगा कि अगर दयान की यात्रा की खबर सार्वजनिक हो गई, तो जनता पार्टी की सरकार गिर जाएगी।’
साल 1977 में विभिन्न विपक्षी समूहों को मिलाकर बनाई गई जनता पार्टी आपातकाल के बाद इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को हराकर सत्ता में आई। देसाई भारत के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री बने और वर्ष 1979 तक 856 दिनों तक इस पद पर रहे।
किताब में कहा गया है कि वाजपेयी इजराइल के साथ औपचारिक संबंधों का लंबे अरसे से समर्थन करने के बावजूद दयान के साथ बैठक के दौरान असहज दिखाई दिए।
इसमें कहा गया है कि तत्कालीन सोवियत संघ में भारत के राजदूत आईके गुजराल से महीनों बाद इस घटनाक्रम का जिक्र करते हुए देसाई ने कहा था कि वाजपेयी दयान के साथ बैठक के परिणामों को लेकर ‘भयभीत’ थे और उनसे ‘चिंता न करने’ के लिए कहा गया था।
किताब के मुताबिक, बैठक में देसाई ने इजराइली मंत्री के प्रस्तावों को अस्वीकार करना जारी रखा।
इसमें कहा गया है कि देसाई ने यह स्वीकार किया कि भारत ने 1950 में इजराइल को मान्यता दे दी थी, लेकिन उन्होंने स्पष्ट किया कि पूर्ण राजनयिक संबंधों पर तभी विचार किया जा सकता है, जब ‘क्षेत्र में शांति कायम हो जाए।’
किताब के अनुसार, देसाई ने फलस्तीनी राज्य के प्रति भारत के दीर्घकालिक समर्थन को भी दोहराया और दिल्ली में इजराइली वाणिज्य दूतावास खोलने जैसे मामूली कदमों का भी विरोध किया।
इसमें कहा गया है, ‘वाजपेयी और देसाई, दोनों ने तर्क दिया कि इस तरह के कदम की गलत व्याख्या की जाएगी, जिससे ‘पश्चिम एशिया के साथ राजनयिक संबंधों में अनावश्यक जटिलताएं पैदा होंगी’… उन्होंने (देसाई ने) सुझाव दिया कि दयान अमेरिका और यूरोप में सम्मेलनों के दौरान वाजपेयी से मिलें, लेकिन उन्होंने अपने विदेश मंत्री (वाजपेयी) को औपचारिक या गुप्त रूप से उनके देश (इजराइल) भेजने का जोखिम उठाने से इनकार कर दिया।’
जनवरी 1992 में राजनयिक संबंध स्थापित होने के बाद नयी दिल्ली में इजराइली दूतावास खोला गया, जबकि मुंबई स्थित वाणिज्य दूतावास, जो 1953 से कार्यरत था, महावाणिज्य दूतावास बन गया।
‘बिलीवर्स डायलेमा : वाजपेयी एंड हिंदू राइट्स पाथ टू पावर’ की कीमत 999 रुपये रखी गई है। प्रकाशक कंपनी पैन मैकमिलन इंडिया ने इस किताब को समकालीन भारत के राजनीतिक इतिहास के रूप में वर्णित किया है, जो 1978-2018 के बीच की ‘परिवर्तनकारी 40 साल की अवधि के अहम घटनाक्रमों को बयां करता है, जिसने हिंदू दक्षिणपंथ को हाशिये से सत्ता के गलियारों में दस्तक देते देखा।’
भाषा पारुल पवनेश
पवनेश