(आमिर खान)
नयी दिल्ली, 23 जुलाई (भाषा) मुंबई में 2006 में हुए उपनगरीय ट्रेन धमाकों के मामले में बंबई उच्च न्यायालय द्वारा कई कारणों से आरोपियों के इकबालिया बयानों को खारिज किए जाने के फैसले पर कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि संबंधित कानून में इतने वर्षों में ‘‘बिलकुल भी बदलाव नहीं आया है’’।
अदालत ने विस्फोट मामले में इकबालिया बयानों को खारिज करने का एक प्रमुख आधार यह बताया कि ये बयान ‘‘एक जैसे हैं और नकल किए हुए प्रतीत होते हैं’’।
वरिष्ठ अधिवक्ता अमित देसाई ने कहा कि जहां तक साक्ष्य को स्वीकार करने का सवाल है तो जहां एक अदालत इसका एक तरह से विश्लेषण करती है, तो दूसरी अदालत दूसरी तरह से।
उन्होंने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, ‘‘हालांकि, इकबालिया बयानों पर कानूनी सिद्धांत बिलकुल नहीं बदला है। कानूनी सिद्धांत यह है कि किसी व्यक्ति को उसके अपने इकबालिया बयान के आधार पर दोषी ठहराया जा सकता है, बशर्ते कि इकबालिया बयान स्वैच्छिक हो और किसी भी तरह के दबाव, प्रलोभन या अनुचित प्रभाव में न लिया गया हो।’’
न्यायमूर्ति अनिल किलोर और श्याम चांडक की पीठ ने कहा, ‘‘प्रत्येक इकबालिया बयान के बम विस्फोटों से संबंधित प्रासंगिक हिस्से की जांच करने पर, हम यह जानकर हतप्रभ हुए कि इन बयानों के कुछ हिस्से एक जैसे हैं और ऐसा लगता है कि उनकी नकल की गई है।’’
पीठ ने 21 जुलाई को सभी 12 दोषियों को बरी कर दिया और कहा कि अभियोजन पक्ष मामले को साबित करने में पूरी तरह विफल रहा तथा यह ‘‘विश्वास करना कठिन है कि आरोपियों ने अपराध किया है’’।
उच्च न्यायालय के फैसले के एक दिन बाद महाराष्ट्र सरकार शीर्ष अदालत पहुंची।
मुंबई की उपनगरीय रेलगाड़ियों में 11 जुलाई 2006 को सात धमाके हुए थे जिनमें 180 से अधिक लोग मारे गए।
देसाई ने कहा कि अदालतें अकसर कहती हैं कि जब आप किसी इकबालिया बयान पर भरोसा करते हैं और आप किसी व्यक्ति को केवल स्वीकारोक्ति के आधार पर दोषी ठहराना चाहते हैं, तो आपको अन्य परिस्थितियों की भी पड़ताल करनी चाहिए, जिसे वे ‘‘स्वीकारोक्ति को पुख्ता करना’’ कहते हैं।
उन्होंने कहा कि इसलिए, जब उच्च न्यायालय ने मुंबई धमाके मामले में साक्ष्यों का तथ्यों और गवाहों की गवाही तथा गवाहों की जिरह के अलावा, आकलन किया तो उसका निष्कर्ष निचली अदालत के निष्कर्ष से काफी अलग था।
देसाई ने दलील दी कि मृत्युदंड के मामले में साक्ष्य का ‘‘सख्त मूल्यांकन’’ किया जाता है, क्योंकि साबित करने का भार अभियोजन पक्ष पर होता है, जिससे साक्ष्य का विश्लेषण ‘‘कहीं अधिक महत्वपूर्ण और सख्त’’ हो जाता है।
वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा ने बताया कि समान गवाहों के बयानों के संदर्भ में भी अदालतें लंबे समय से ‘‘तोते जैसे बयानों’’ पर प्रतिकूल टिप्पणी करती रही हैं।
उन्होंने उच्चतम न्यायालय के 1984 के एक फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि यह मानना असंभव है कि सभी गवाह एक ही भाषा बोलते हैं और एक ही शब्द का प्रयोग करते हैं।
लूथरा ने कहा, ‘‘यह सिद्धांत अभियुक्तों के इकबालिया बयानों पर भी समान रूप से लागू होता है।’’
उल्लेखनीय है कि यह बात रिकॉर्ड में आई कि मुंबई ट्रेन विस्फोट मामले में 11 आरोपियों ने 2006 में अदालत के समक्ष इकबालिया बयान दिया और फिर अपने बयान से मुकर गए।
अधिवक्ता ध्रुव गुप्ता ने स्पष्ट किया, ‘‘जितनी जल्दी मुकरना हो, स्थापित कानून के अनुसार उतना ही बेहतर है, ताकि इस दलील को खारिज किया जा सके कि सोच समझकर बयान से मुकरा गया है।’’
उन्होंने 1952 में पूरन बनाम पंजाब राज्य मामले में शीर्ष अदालत के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि वापस लिए गए इकबालिया बयान के आधार पर दोषसिद्धि से बचना चाहिए, जब तक कि वापस लिए गए इकबालिया बयान की पुष्टि प्रासंगिक साक्ष्यों से न हो जाए, जो इकबालिया बयान के भौतिक विवरणों का समर्थन करते हों।
इसी प्रकार, ऐतिहासिक संसद हमले के मामले में वर्ष 2005 में दिए गए फैसले में उच्चतम न्यायालय ने वापस लिए गए इकबालिया बयानों के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से विचार किया था और कहा था कि अदालतों को बयान वापस लेने के साथ-साथ बयान वापस लेने के कारणों पर भी विचार करना चाहिए।
यह निर्धारित करने के लिए कि क्या स्वीकारोक्ति स्वैच्छिक थी या धमकी के तहत थी, दोनों पहलुओं को ध्यान में रखा जाना था और अदालतों से कहा गया था कि वे सामान्यतः वापस लिए गए इकबालिया बयान पर भरोसा न करें, जब तक कि भौतिक विवरणों से इसकी पुष्टि न हो जाए।
गुप्ता ने कहा, ‘‘वापस लिए गए इकबालिया बयानों पर कुछ संदेह के साथ विचार किया जाता है, और इस पर तभी भरोसा किया जा सकता है जब ऐसा प्रतीत हो कि इकबालिया बयान स्वेच्छा से दिया गया था और वापस लिए गए इकबालिया बयान के भौतिक विवरणों की पुष्टि के लिए पर्याप्त सामग्री मौजूद हो।’’
वरिष्ठ अधिवक्ता विकास पाहवा ने कहा कि बरी करने के पीछे मुख्य कारण पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा दर्ज किए गए इकबालिया बयानों की अविश्वसनीयता थी, जिसे उच्च न्यायालय ने बल प्रयोग, हिरासत में यातना और अमानवीय व्यवहार से संदूषित पाया, जिसकी पुष्टि कुछ आरोपियों के मेडिकल रिकॉर्ड से भी हुई।
पाहवा ने कहा, ‘‘अदालत ने सही कहा है कि ऐसे बयान, जो संविधान के अनुच्छेद 20(3) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 24 के तहत अभियुक्त के अधिकारों का उल्लंघन करते हुए दिए गए हों और स्वतंत्र पुष्टि द्वारा समर्थित न हों, वैध दोषसिद्धि का आधार नहीं बन सकते।’’
भाषा धीरज नेत्रपाल
नेत्रपाल