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Sunday, July 27, 2025

वर्ष 1995 आतंकी हमला : चरार-ए-शरीफ की सूफी परंपरा अब भी कायम, भयावह यादें अब भी ताजा

Newsवर्ष 1995 आतंकी हमला : चरार-ए-शरीफ की सूफी परंपरा अब भी कायम, भयावह यादें अब भी ताजा

(सुमीर कौल)

चरार-ए-शरीफ (कश्मीर), 27 जुलाई (भाषा) प्रतिष्ठित चरार-ए-शरीफ दरगाह पर 66 दिनों की घेराबंदी को तीन दशक बीत चुके हैं, फिर भी आतंकवादियों और सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ की भयावह यादें उन निवासियों के मन में अब भी ताजा हैं, जिन्होंने अपने प्राचीन शहर में मौत और तबाही का मंजर देखा था।

11 मई 1995 को घेराबंदी का अंत तब हुआ जब चारों तरफ से घिर चुके आतंकवादियों ने हताश होकर दरगाह को आग लगा दी। इससे सूफी संत शेख नूर-उद-दीन नूरानी, जिन्हें नंद ऋषि भी कहा जाता है, की 14वीं शताब्दी की दरगाह, नजदीकी मस्जिद और आसपास के क्षेत्र का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो गया, तथा हजारों निवासियों ने अपने घर और आजीविका खो दी।

गुलाम हसन खादिम जैसे स्थानीय लोग आज भी उस घटना को याद करके सिहर उठते हैं जब पाकिस्तानी आतंकवादी मस्त गुल ने घेराबंदी तोड़ने का प्रयास कर रहे एक बुजुर्ग व्यक्ति के मुंह में ग्रेनेड ठूंस दिया था। इस घटना ने कई अन्य लोगों की जिंदगी को भी पूरी तरह से बदल दिया।

खादिम ने गहरी सांस लेते हुए विद्वान बुजुर्ग नूर मोहम्मद फतेह खान की बहादुरी को याद किया, जिन्होंने दरगाह के अंदर छिपे आतंकवादियों से संपर्क करने का प्रयास किया था।

खादिम ने बताया, ‘‘मुझे अच्छी तरह से याद है कि मस्त गुल ने उनके (खान) मुंह में एक ग्रेनेड ठूंस दिया था और उसकी पिन निकालना चाहता था, लेकिन उन्हें यह चेतावनी देकर छोड़ दिया कि बातचीत की कोई गुंजाइश नहीं है।’’

उन्होंने कहा, ‘‘इस घटना को चारदीवारी से देख रहे हममें से कई लोग स्तब्ध रह गए।’’

एक तरफ आतंकियों के आग लगाने के कारण दरगाह और आसपास के घर दहक रहे थे जबकि गुल रहस्यमय तरीके से फरार हो गया।

चरार-ए-शरीफ अपनी सूफी परंपराओं से ताकत हासिल करते हुए बहाली के पथ पर आगे बढ़ रहा है।

खादिम ने कहा, ‘‘इस दरगाह के प्रति आस्था, जो मुसलमानों के साथ-साथ कश्मीरी पंडितों द्वारा भी पूजनीय है, केवल बढ़ी है, क्योंकि यह आम धारणा है कि स्थानीय आबादी अधिक प्रभावित होने से इसलिए बच गई क्योंकि आसन्न आपदा का पूरा खामियाजा इस दरगाह ने उठाया है।’’

जम्मू-कश्मीर पुलिस के पूर्व महानिदेशक कुलदीप खोड़ा का कहना है कि चरार-ए-शरीफ दरगाह आतंकवादियों और सीमा पार उनके आकाओं के लिए ‘‘आंखों की सबसे बड़ी किरकिरी’’ थी।

उन्होंने कहा, ‘‘कश्मीर अपनी सूफी परंपरा के लिए जाना जाता है और चरार स्थित दरगाह इसका जीता जागता सबूत है। आईएसआई और आतंकवादी समूहों का हमेशा से इस परंपरा को खत्म करने की साजिश रही है और 1995 में की गई कोशिश भी इसी साजिश का हिस्सा थी।’’

उस समय 32 वर्ष के रहे गुलाम कादिर याद करते हैं कि पूरे इलाके की 66 दिनों तक घेराबंदी की गई थी।

उन्होंने कहा, ‘‘वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों और जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल जनरल के.वी. कृष्ण राव के नेतृत्व में शीर्ष प्रशासनिक अधिकारियों की बार-बार की गई अपीलें अनसुनी कर दी गईं, क्योंकि छुपे हुए आतंकवादियों का वहां से निकलने का इरादा नहीं था।’’

गुलाम कादिर का मानना है कि शहर अब भी उस त्रासदी के जख्मों के साथ जी रहा है। उन्होंने बताया कि भीषण आग में नष्ट हुए कई घरों का कभी भी उचित पुनर्वास नहीं किया गया और 2008 के बाद पुनर्निर्माण के प्रयास कथित तौर पर पूरी तरह से ठप हो गए हैं।

एक अन्य स्थानीय निवासी ने बताया कि मुख्य दरगाह का काम अभी पूरा हो ही रहा था कि उपराज्यपाल प्रशासन ने बगल वाली मस्जिद को बंद कर दिया, क्योंकि राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान की एक टीम ने इसे असुरक्षित घोषित कर दिया था।

उन्होंने बताया कि यह एक नई संरचना थी और इसमें खामियां थीं।

स्थानीय लोगों ने निर्माण की गुणवत्ता पर सवाल उठाए हैं, विशेषकर इस तथ्य को देखते हुए कि इस पर काफी धनराशि खर्च की गई है।

भाषा शफीक नरेश

नरेश

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