नयी दिल्ली, 31 जुलाई (भाषा) उच्चतम न्यायालय ने तेलंगाना विधानसभा के अध्यक्ष को बृहस्पतिवार को निर्देश दिया कि वह राज्य में सत्तारूढ़ कांग्रेस में शामिल होने वाले भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) के 10 विधायकों के खिलाफ अयोग्यता याचिकाओं पर तीन महीने में फैसला करें।
शीर्ष अदालत ने कहा कि अगर राजनीतिक दलबदल पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो यह लोकतंत्र को नुकसान पहुंचा सकता है।
उसने कहा कि संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत अयोग्यता याचिकाओं पर फैसला करते समय विधानसभा अध्यक्ष एक न्यायाधिकरण के रूप में काम करते हैं, लिहाजा उन्हें न्यायिक जांच के खिलाफ “संवैधानिक प्रतिरक्षा” हासिल नहीं है।
संविधान की दसवीं अनुसूची दल-बदल के आधार पर अयोग्यता के प्रावधानों से संबंधित है।
प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा, “हमारे लोकतंत्र की नींव तब हिल जाती है, जब दलबदल करने वाले निर्वाचित प्रतिनिधियों को (अयोग्यता याचिकाओं पर) समय पर फैसला न होने के कारण पद पर बने रहने की इजाजत दी जाती है। संसद ने अध्यक्ष के उच्च पद पर भरोसा किया था कि वह शीघ्रता से कार्य करेंगे। कई मामलों में इस भरोसे का सम्मान नहीं किया गया है।”
पीठ ने 74 पन्नों के अपने फैसले में तेलंगाना विधानसभा के अध्यक्ष को अयोग्यता याचिकाओं पर तीन महीने के भीतर फैसला लेने का निर्देश दिया। उसने कहा, “हमारे विचार में अध्यक्ष को कोई निर्देश जारी करने में विफलता, उस उद्देश्य को विफल कर देगी, जिसके लिए संविधान में दसवीं अनुसूची को शामिल किया गया है।”
प्रधान न्यायाधीश ने कहा, “अगर हम कोई निर्देश जारी नहीं करते हैं, तो यह विधानसभा अध्यक्ष को “ऑपरेशन सफल रहा, लेकिन मरीज को नहीं बचाया जा सका” जैसी स्थिति को दोहराने की अनुमति देने के समान होगा, जिसकी बड़े पैमाने पर आलोचना की गई है।”
“ऑपरेशन सफल रहा, लेकिन मरीज को नहीं बचाया जा सका” वाक्यांश का इस्तेमाल ऐसी स्थितियों को परिभाषित करने के लिए किया जाता है, जहां कोई प्रक्रिया ठीक तरह से पूरी की जाती है, फिर भी समग्र परिणाम नकारात्मक होता है।
शीर्ष अदालत ने कहा कि दसवीं अनुसूची 1985 में “राजनीतिक दलबदल की बुराई को देखते हुए” लाई गई थी।
उसने कहा कि अयोग्यता याचिकाओं पर फैसला लेने का जिम्मा अध्यक्ष या सभापति को सौंपने का एकमात्र उद्देश्य “अदालतों या निर्वाचन आयोग में होने वाली देरी से बचना है।”
न्यायालय ने कहा, “यह भी गौर किया जाना चाहिए कि संसद ने दलबदल के आधार पर अयोग्य ठहराए जाने के अनुरोध वाली याचिकाओं पर फैसला लेने का महत्वपूर्ण काम अध्यक्ष/सभापति को सौंपने का निर्णय लिया है, तथा उनसे उम्मीद की है कि वे निर्भीकतापूर्वक और शीघ्रता से इन पर निर्णय लेंगे…।”
शीर्ष अदालत ने पूछा कि क्या पिछले 30 वर्षों में दसवीं अनुसूची ने अपना उद्देश्य पूरा किया है।
उसने कहा, “हमें इस सवाल का जवाब देने की जरूरत नहीं है, क्योंकि हमने जिन मामलों का जिक्र किया है, उनके तथ्य खुद ही इसका उत्तर प्रदान करते हैं।”
न्यायालय ने कहा कि अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय लेने में अध्यक्ष की ओर से की जाने वाली देरी से निपटने के लिए एक तंत्र विकसित करना संसद का काम है।
उसने कहा, “हालांकि, हमारे पास परामर्श देने का कोई अधिकार नहीं है, फिर भी संसद को इस बात पर विचार करना है कि दलबदल के आधार पर अयोग्यता के मुद्दे पर निर्णय लेने का महत्वपूर्ण काम अध्यक्ष/सभापति को सौंपने की व्यवस्था राजनीतिक दलबदल से प्रभावी ढंग से निपटने के उद्देश्य की पूर्ति कर रही है या नहीं।”
शीर्ष अदालत ने कहा, “अगर हमारे लोकतंत्र की बुनियाद और उसे कायम रखने वाले सिद्धांतों की रक्षा करनी है, तो यह पता लगाना जरूरी है कि मौजूदा व्यवस्था पर्याप्त है या नहीं। हम मानते हैं कि इस पर फैसला संसद को ही लेना है।”
अदालत ने पी. कौशिक रेड्डी समेत बीआरएस के नेताओं की अपीलों को स्वीकार कर लिया, जिसमें विधानसभा अध्यक्ष को दलबदल करने वाले विधायकों के खिलाफ अयोग्यता याचिकाओं पर शीघ्र निर्णय लेने का निर्देश देने का अनुरोध किया गया था।
पीठ ने तेलंगाना उच्च न्यायालय की खंडपीठ के 22 नवंबर, 2024 के फैसले को रद्द कर दिया, जिसमें एकल न्यायाधीश के पूर्व आदेश में हस्तक्षेप किया गया था।
पीठ ने कहा, ‘अयोग्यता की कार्यवाही अध्यक्ष को सौंपने का उद्देश्य अदालतों में होने वाली देरी से बचना है।’
पीठ ने विधानसभा अध्यक्ष से कहा कि वह विधायकों को अयोग्यता की कार्यवाही को लंबा न खींचने दें। साथ ही, अगर विधायक कार्यवाही को लंबा खींचते हैं, तो विधानसभा अध्यक्ष प्रतिकूल निष्कर्ष निकाल सकते हैं।
हालांकि, फैसले में कुछ पूर्व निर्णयों का हवाला देते हुए यह दलील खारिज कर दी गई कि शीर्ष अदालत को स्वयं ही अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय करना चाहिए।
अदालत ने इस बात पर भी गौर किया कि विधानसभा अध्यक्ष ने लगभग सात महीने तक अयोग्यता याचिकाओं पर नोटिस भी जारी नहीं किया।
पीठ ने कहा, ‘इसलिए हम अपनी ओर से यह प्रश्न पूछते हैं कि क्या अध्यक्ष ने शीघ्रता से कार्य किया है। शीघ्रता को ध्यान में रखकर ही संसद ने अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय करने का महत्वपूर्ण कार्य अध्यक्ष/सभापति को सौंपा था।”
पीठ ने कहा, ‘सात महीने की अवधि तक नोटिस जारी न करना किसी भी तरह से त्वरित कार्रवाई नहीं मानी जा सकती।’
उसने कहा, “हम अध्यक्ष को निर्देश देते हैं कि वर्तमान अपील/याचिका से संबंधित 10 विधायकों के खिलाफ लंबित अयोग्यता कार्यवाही को यथाशीघ्र और किसी भी स्थिति में इस फैसले की तारीख से तीन महीने की अवधि के भीतर समाप्त किया जाए।”
पीठ ने विधानसभा अध्यक्ष को निर्देश दिया कि वह किसी भी ऐसे विधायक को कार्यवाही को लंबा खींचने की अनुमति न दें, जिसे अयोग्य घोषित करने का अनुरोध किया गया है।
उसने कहा, “अगर इनमें से कोई भी विधायक कार्यवाही को लंबा खींचने का प्रयास करता है, तो अध्यक्ष ऐसे विधायकों के खिलाफ प्रतिकूल निष्कर्ष निकालेंगे।”
शीर्ष अदालत ने तीन अप्रैल को मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।
न्यायालय ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री ए रेवंत रेड्डी के विधानसभा में दिए गए इस बयान पर नाखुशी जताई थी कि उपचुनाव नहीं होंगे।
अदालत ने कहा था कि उनसे (रेड्डी) “कुछ हद तक संयम” बरतने की अपेक्षा की जाती है।
शीर्ष अदालत में दायर एक याचिका में बीआरएस के तीन विधायकों को अयोग्य ठहराने के अनुरोध वाली याचिकाओं से संबंधित तेलंगाना उच्च न्यायालय के नवंबर 2024 के आदेश को चुनौती दी गई थी, जबकि एक अन्य याचिका दलबदल करने वाले शेष सात विधायकों से संबंधित थी।
भाषा पारुल सुरेश
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