भारत ने वर्ष 2047 तक स्वयं को एक विकसित राष्ट्र के रूप में देखने का संकल्प लिया है—एक ऐसा भारत, जो न केवल आर्थिक रूप से सशक्त हो, बल्कि अपने मानव संसाधनों की गुणवत्ता और नवाचार क्षमता में भी अग्रणी हो। लेकिन, विकास की इस भव्य रूपरेखा के नीचे दो गहरे संकट धड़क रहे हैं: एक, प्रतिभाशाली दिमागों का निरंतर विदेश पलायन, और दूसरा, मानसिक दबाव के बोझ तले दम तोड़ते युवाओं की बढ़ती संख्या।
राज्यसभा में विदेश मंत्री एस. जयशंकर के आंकड़े किसी चेतावनी की तरह हैं। 2011 से 2022 के बीच 16 लाख 63 हजार 440 भारतीय, जिनमें बड़ी संख्या उच्च शिक्षित पेशेवरों की थी, बेहतर अवसरों की तलाश में देश छोड़ गए। केवल 2022 में ही 2 लाख 25 हजार 620 भारतीयों ने अपनी नागरिकता त्याग दी—यह पिछले 12 वर्षों का सबसे ऊँचा स्तर है। यह उस विडंबना की याद दिलाता है, जिसमें देश के सर्वोत्तम तकनीकी संस्थानों, जैसे IIT, से पढ़े एक-तिहाई स्नातक विदेश की प्रयोगशालाओं और कंपनियों में योगदान देते हैं, जबकि देश का अपना उद्योग और अनुसंधान संस्थान कुशल मानव संसाधन की कमी से जूझते हैं।
सरकार इस “ब्रेन ड्रेन” को “ब्रेन गेन” में बदलने के लिए योजनाएँ चला रही है—प्रधानमंत्री अनुसंधान छात्रवृत्ति योजना, रामानुजन फेलोशिप, VAJRA कार्यक्रम—ये सभी विदेश गए भारतीय वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं को वापस आकर्षित करने या यहीं बनाए रखने की कोशिश हैं। लेकिन, आर्थिक अवसर, कार्यस्थल का वातावरण और जीवन की गुणवत्ता जैसे बुनियादी सवाल अब भी बाकी हैं। यदि इनका उत्तर नहीं मिला, तो 2047 का “10 ट्रिलियन डॉलर अर्थव्यवस्था” का लक्ष्य महज़ आर्थिक भाषणों में सिमट सकता है।
दूसरी तरफ, जो युवा देश में हैं, वे भी मानसिक दबाव के विकराल जाल में उलझे हैं। NCRB की ताज़ा रिपोर्ट बताती है कि 2022 में 13,000 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की—यह 2021 की तुलना में लगभग दोगुना है। इनमें से 2,095 मामले केवल परीक्षा में असफल होने के कारण थे, और 18 वर्ष से कम आयु के 1,123 बच्चों ने इसी वजह से अपनी जान दी। यह संख्या केवल आंकड़ा नहीं, बल्कि एक मौन सामाजिक आपातकाल है।
महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, झारखंड, कर्नाटक और गुजरात जैसे राज्य इस त्रासदी की सूची में ऊपर हैं। अधिकतर आत्महत्याएं उन युवाओं में हुईं जिनकी शिक्षा माध्यमिक स्तर तक थी—यानी, हमारी शिक्षा व्यवस्था का वह हिस्सा, जो सबसे अधिक भीड़भाड़, प्रतिस्पर्धा और तनाव से ग्रस्त है। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि NEET, JEE, CUET जैसी परीक्षाओं की तीव्र प्रतिस्पर्धा और कोचिंग उद्योग का बेलगाम विस्तार युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर भारी पड़ रहा है। रटंत प्रणाली, अत्यधिक अध्ययन घंटे, और अंक-केंद्रित दृष्टिकोण ने शिक्षा को सीखने की यात्रा से हटाकर एक नंबरों की दौड़ में बदल दिया है।
भारत के पास अगले 22 वर्षों में विकसित राष्ट्र बनने का अवसर है, लेकिन इसके लिए आर्थिक नीतियों जितना ही आवश्यक है—मानव मन की सुरक्षा। क्योंकि, अगर दिमाग देश छोड़ते रहेंगे और दिल तनाव में टूटते रहेंगे, तो “विकसित भारत” का सपना आधा अधूरा ही रह जाएगा।
इनपुट- Arham Abdaal
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