29.7 C
Jaipur
Tuesday, August 19, 2025

अपनी जमीन तलाशने निकले राहुल गांधी, वोट अधिकार यात्रा के सहारे कांग्रेस को मिलेगी बिहार में मजबूती?

Newsअपनी जमीन तलाशने निकले राहुल गांधी, वोट अधिकार यात्रा के सहारे कांग्रेस को मिलेगी बिहार में मजबूती?

बिहार में SIR को भुनाते विपक्ष का मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर राहुल गांधी ने जोरदार तरीके से उठाया. ‘वोट चोरी’ का आरोप लगाकर चुनाव आयोग को जमकर घेरते नजर आते हैं. वहीं, बीजेपी आरोप लगा रही है कि अपने कार्यकाल में 90 चुनाव हार चुके राहुल गांधी को संस्थाओं को बेवजह निशाना बनाने का बस बहाना चाहिए.

इन सबके बीच, कांग्रेस पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के मुद्दे को पीछे छोड़ रही है, जिनके इस्तीफे से एक नरैटिव तैयार हुआ था. यह नरैटिव वोट चोरी जैसे सैद्धांतिक मुद्दों से कही ज्यादा इमोशनल इश्यू की तरह विपक्ष को बढ़त देता दिख रहा था. चुनाव प्रणाली पर बात करने को लेकर सवाल नहीं है, लेकिन जब सामने बिहार जैसे राज्य में चुनाव हो तो मुद्दों का चयन काफी अहम होता है.

नया राजनीतिक पड़ाव

बरहाल, ‘मस्तमौला’ राजनेता राहुल गांधी बिहार में वोटर अधिकार यात्रा पर निकल रहे हैं, जिसका रूटमैप भी आ गया है. 17 अगस्त से शुरू हुई यात्रा के तहत राहुल गांधी 1 सितंबर तक बिहार में रहेंगे. इस दौरान 25 से अधिक जिलों को कवर करने का अनुमान है. भारत जोड़ो यात्रा की सफलता के बाद यात्राओं का दौर राहुल गांधी को राजनीति में अगले पड़ाव पर जाने का रास्ता नज़र आता है.

2009 में PM पद ठुकराने पर उठते हैं सवाल

उनके जीवन के राजनीतिक उद्देश्यों पर वो अक्सर जाहिर करते हैं कि राजा वाली ऑथोरिटी वो नहीं चाहते. लेकिन राजनीतिक विश्लेषकों मानते हैं कि वो विपक्ष के नेता रहते जिस तरह से खुद को साबित करने के लिए जूझ रहे हैं, वो शायद उन्हें जरूरत नहीं होती अगर वो 2009 के आसपास अपनी लोकप्रियता के वक्त पीएम का पद स्वीकार कर लेते.  2003 से 2013 तक राहुल गांधी की लोकप्रियता और प्रधानमंत्री पद की दावेदारी का सफर कई उतार-चढ़ाव भरा रहा.

2004 में अमेठी से पहली जीत

2003 में युवा राजनेता के रूप में कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बीच सक्रिय हुए राहुल गांधी ने 2004 के आम चुनाव में पहली बार अमेठी से लोकसभा चुनाव लड़ा और भारी मतों से जीते. इसके बाद वे कांग्रेस के युवाओं के चेहरे के तौर पर उभरे. खासतौर से जब यूपी में पार्टी के पुनर्जीवन के प्रयासों में उनका बड़ा योगदान माना गया तो उनकी लोकप्रियता में भी काफी इजाफा हुआ.

प्रशंसक चाहते थे राहुल बने पीएम

साल 2007-09 के दौरान उनकी अगुवाई में पार्टी को यूपी में कुछ हद तक मजबूती मिली और 2009 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को 21 सीटें मिलीं तो इसका श्रेय भी राहुल गांधी की रणनीति को ही दिया गया. एक वक्त ऐसा भी आया, जब उनके लिए उनके प्रशंसक तख्तियां लेकर खड़े नजर आते और उन्हें प्रधानमंत्री देखना चाहते थे, लेकिन उन्होंने उस वक्त दिलचस्पी नहीं दिखाई. कई एक्सपर्ट्स का मानना है कि तब शायद वो पद स्वीकार करते तो राजनीति में कथित असक्षम होने का टैग उन पर नहीं लगता.

1996 में PM पद के करीब थे ज्योति बसु

ये ठीक वैसा है, जैसा कभी दिग्गज कम्युनिस्ट नेता और भारत के लंबे समय तक सीएम रहने वाले ज्योति बसु के साथ हुआ. 1996 में प्रधानमंत्री बनने के बेहद करीब आ गए थे, उस समय लोकसभा चुनाव में किसी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था. कांग्रेस सत्ता से बाहर हो चुकी थी और संयुक्त मोर्चा सरकार बनाने की कोशिशें चल रही थीं. मोर्चे के कई घटक दलों और यहां तक कि कांग्रेस ने भी ज्योति बसु का नाम सर्वसम्मति से प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया.

पहले कम्युनिस्ट पीएम बन सकते थे बसु

वे देश के पहले कम्युनिस्ट प्रधानमंत्री बन सकते थे. लेकिन CPI(M) की केंद्रीय समिति ने विचारधारात्मक कारणों से यह प्रस्ताव ठुकरा दिया, यह कहते हुए कि सत्ता में शामिल होना पार्टी की नीति के खिलाफ है. पार्टी नेतृत्व का मानना था कि पूंजीवादी ढांचे के भीतर सरकार चलाकर वे अपनी नीतियों को लागू नहीं कर पाएंगे और यह पार्टी की विचारधारा से समझौता होगा. बसु, अनुशासित कम्युनिस्ट नेता होने के नाते, पार्टी के निर्णय के आगे झुक गए और प्रधानमंत्री नहीं बने.

लागू कर सकते थे वामपंथ की नीतियां

बाद में, अपनी आत्मकथा और कई इंटरव्यू में ज्योति बसु ने इसे “एक ऐतिहासिक भूल” कहा. उनका मानना था कि अगर पार्टी अनुमति देती, तो वे केंद्र में रहकर वामपंथ की नीतियों को व्यापक स्तर पर लागू कर सकते थे और देश की राजनीति की दिशा प्रभावित कर सकते थे. इस घटना ने न केवल बसु की निजी राजनीतिक यात्रा, बल्कि भारतीय वामपंथ की केंद्रीय राजनीति में संभावनाओं को भी प्रभावित किया.

राहुल भी झेल चुके हैं ऐसा ऐतिहासिक मोड़

एक ऐसा ही ऐतिहासिक मोड़ शायद राहुल गांधी और उनके इर्द गिर्द के लोग महसूस करते होंगे. कई बाद उनके लिए प्रधानमंत्री पद की दावेदारी पर पार्टी के भीतर और बाहर कई तरह की चर्चाएं रहीं. साल 2004 और 2009, दोनों मौकों पर राहुल गांधी ने खुद किसी कैबिनेट पद को लेने या प्रमुख जिम्मेदारी निभाने से दूरी बनाई और मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाए रखने में भूमिका निभाई.

यह भी पढ़ें: राहुल गांधी मैदान में, विपक्ष की धड़कन तेज; क्या बढ़ेगा कांग्रेस का वोट बैंक?

Check out our other content

Check out other tags:

Most Popular Articles