इस बार मानसून में पहाड़ों पर सिर्फ बारिश नहीं हुई, आसमान जैसे फट पड़ा हो। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड और जम्मू-कश्मीर में कुछ ही घंटों की मूसलाधार बारिश ने घाटियों को उजाड़ दिया, पुल ढहा दिए और पूरे-पूरे ज़िले को ठप कर दिया।
जम्मू-कश्मीर के किश्तवाड़ में 14 अगस्त 2025 को अचानक आई भीषण बारिश ने तीर्थयात्रियों और ग्रामीणों को बहा दिया। अधिकारियों ने कम से कम 60 लोगों की मौत, 100 से अधिक घायल और करीब 200 लापता होने की पुष्टि की। हिमाचल में 16-17 अगस्त तक 300 से अधिक सड़कें बंद रहीं, बिजली और पानी की आपूर्ति ठप हो गई और नुकसान ₹2,000 करोड़ से अधिक आँका गया। 5 अगस्त को उत्तरकाशी के धराली गाँव में आई बाढ़ ने दर्जनों लोगों को लापता कर दिया और एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया: क्या हम अपने ही विकास से आपदाओं को न्योता दे रहे हैं?
क्लाउडबर्स्ट आखिर है क्या?
भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) इसे इस तरह परिभाषित करता है: एक घंटे में लगभग 100 मिमी या उससे अधिक बारिश किसी छोटे से क्षेत्र (20–30 वर्ग किलोमीटर) में होना। यह घटना बेहद दुर्लभ और स्थानीय होती है, लेकिन इतनी ताक़तवर कि पहाड़ों को पिघलाकर पत्थर और मलबे की नदियाँ बहा सकती है।
ख़तरा प्राकृतिक है, लेकिन तबाही इंसानी है। जो चीज़ इन अचानक बारिशों को हर साल और ज़्यादा घातक बनाती है, वह है हमारा अनियंत्रित निर्माण, हाईवे-टनल-डैम परियोजनाएँ और नाज़ुक भू-भाग पर कब्ज़ा, अक्सर उन्हीं नियमों को तोड़कर जिन्हें हमने ख़ुद बनाया था।
आँकड़े जिनसे नज़र नहीं हटाई जा सकती
हिमाचल प्रदेश में 16 अगस्त तक प्रशासन ने बताया कि 313 सड़कें बंद, 348 ट्रांसफ़ॉर्मर और 119 जल योजनाएँ प्रभावित, 136 मौतें और 37 लापता और कुल नुकसान ₹2,144 करोड़ से ज़्यादा का हुआ। पूरे मानसून सीज़न का आंकड़ा देखें तो मौतें 250 से ऊपर जा चुकी हैं।
जम्मू-कश्मीर में किश्तवाड़ की त्रासदी सबसे गंभीर रही। 15 अगस्त तक सरकार ने 60 से अधिक शव मिलने और करीब 200 लोगों के लापता होने की पुष्टि की। उत्तराखंड के उत्तरकाशी (धराली) में 5 अगस्त को आई बाढ़ ने दर्जनों घर बहा दिए और कई ज़िंदगियाँ ले लीं। यहाँ बहस फिर वही है – क्या पहाड़ों में इंसानी दख़ल ही असली खतरा है?
हमने हालात और बदतर कैसे किए
1) चौड़ी सड़कें और खतरनाक ढलान कटाई
उत्तराखंड की चारधाम सड़क परियोजना इसका प्रतीक है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित उच्चस्तरीय समिति (HPC) ने 5.5 मीटर चौड़ी सड़क (2018 के मानक) की सिफारिश की थी और क्यूम्युलेटिव असर (सामूहिक प्रभाव) का आकलन ज़रूरी बताया था। लेकिन राजनीतिक दबाव में कई हिस्सों में ज़्यादा चौड़ी सड़कें बनीं। हर अतिरिक्त मीटर की कटाई पहाड़ों को और अस्थिर बना देता है और मलबा नदियों को रोककर अचानक बाढ़ का कारण बनता है।
2) सुरंगें और जलविद्युत परियोजनाएँ
खनन सुरंगें (adits), मनमाना मलबा फेंकना (muck dumping), और भूमिगत जल निकासी प्रणाली में बदलाव, ढलानों के ढहने के तरीके को बदल देते हैं। परियोजना-दर-परियोजना किए गए पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA), कैचमेंट-स्तर के मॉडलिंग के बिना, यह समझने में विफल रहते हैं कि किस तरह एक ही घाटी में कई हस्तक्षेप मिलकर बादल फटने जैसी बारिश के दौरान सामूहिक विफलता का कारण बन सकते हैं। राष्ट्रीय दिशा-निर्देश लंबे समय से जोखिम-आधारित स्थल चयन और संचयी आकलन पर ज़ोर देते रहे हैं, लेकिन इनका पालन टुकड़ों में ही होता है।
3) बाढ़ मैदानों और मलबा-प्रवाह पंखों पर रियल एस्टेट
कुल्लू से उत्तरकाशी और सोनमर्ग तक, निर्माण कार्य प्रवाही पंखों (alluvial fans) और संकरी बाढ़-धाराओं पर फैल चुका है। इसमें अक्सर नदी-तल खनन और क्षतिग्रस्त तटवर्ती बफ़र्स ने मदद की है। जब कोई खड़ी जलग्रहण क्षेत्र ढहता है, तो ठीक इन्हीं सतहों पर चट्टानों और लकड़ियों का मलबा फिर से फैलकर काबिज़ हो जाता है। धराली की घटना पर की गई रिपोर्ट बताती है कि पिछले दो दशकों से ज्ञात मलबा-प्रवाह मार्गों पर लगातार निर्माण होता रहा है।
4) जलवायु परिवर्तन बड़ा फैक्टर
गर्म हवा अधिक नमी अपने में समेटती है; जब मानसूनी लहरें और पश्चिमी विक्षोभ खड़ी स्थलाकृति से टकराते हैं, तो अत्यधिक और अल्पकालिक वर्षा तेजी से बढ़ जाती है। पश्चिमी हिमालय के लिए की गई कई पीयर-रिव्यू समीक्षाएँ यह दर्शाती हैं कि ऐसी चरम घटनाओं का बढ़ता जोखिम सीधे–सीधे मौजूदा ऊष्मीकरण और वायुमंडलीय परिसंचरण में बदलाव से जुड़ा है। सभी बादल फटने की घटनाओं में रुझान देखने की ज़रूरत नहीं है; तर्क सीधा है। वर्षा के वितरण में तीव्रता बढ़ रही है इसके साथ संवेदनशील क्षेत्रों में संपत्ति और आबादी का विस्तार और भी विनाशकारी आपदाएँ को दावत दे रही है।
दून वैली केस में NGT का नोटिस
दून वैली इसका ताज़ा उदाहरण है। 5 अगस्त 2025 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने उत्तराखंड सरकार और केंद्र को नोटिस भेजा क्योंकि 13 मई 2025 के संशोधन से 1989 की ईको-सेंसिटिव ज़ोन सुरक्षा कमजोर कर दी गई थी। अब तक योजना की स्वीकृति का अधिकार पर्यावरण मंत्रालय (MoEFCC) के पास था, लेकिन इसे राज्य सरकार को सौंप दिया गया है। ट्रिब्यूनल ने 19 सितंबर 2025 तक जवाब मांगा है। याचिका में कहा गया है कि यह संशोधन पूर्व न्यायालय निर्देशों के विपरीत है और पहले से ही बाढ़ और भूस्खलन की मार झेल रही इस नाजुक घाटी में अनियंत्रित गतिविधियों का रास्ता खोल सकता है।
NDMA की स्पष्ट गाइडलाइन
राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA) की राष्ट्रीय गाइडलाइंस (विशेषकर हिमालयी बेसिनों से जुड़े जीएलओएफ-ग्लेशियल लेक आउटबर्स्ट फ्लड-जोखिम के संदर्भ में) बार-बार यही कहती हैं कि विकास कार्यों को जोखिम-आधारित योजना, नो-बिल्ड फ्लडवे ज़ोन, अर्ली वार्निंग सिस्टम, ढलान स्थिरीकरण मानक, और संचयी (क्यूम्युलेटिव) आकलन पर आधारित होना चाहिए ना कि टुकड़ों-टुकड़ों में। यह कोई नई बातें नहीं हैं; बल्कि ये वही बुनियादी मानक हैं जिनका पालन हमारी आधारभूत संरचनाओं को पहले से करना चाहिए।
चार धाम प्रोजेक्ट पर विवाद
अब चार धाम परियोजना को ही लीजिए, यहाँ उच्चाधिकार समिति (HPC) की चौड़ाई और भूगर्भीय जोखिमों पर दी गई चेतावनी एक सार्वजनिक खींचतान में बदल गई। सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप (और 2018 के हिल-रोड मानक) ने संकरी सड़कों की आवश्यकता दर्ज की, लेकिन ज़मीनी स्तर पर अस्थिर पहाड़ों में चौड़ी और तेज़ सड़कों का निर्माण जारी रहा। विशेषज्ञों की आपत्तियाँ लगातार सामने आती रही हैं। यहाँ तक कि 2025 में ताज़ा चेतावनी दी गई कि वर्तमान डिज़ाइन अगर इसी तरह लागू किए गए तो यह “हिमालयी आपदा” को जन्म दे सकते हैं।
हर बाढ़ को क्लाउडबर्स्ट कहना ग़लत
मीडिया की एक लगातार समस्या यह भी है कि हर पहाड़ी बाढ़ को “क्लाउडबर्स्ट” का नाम दे दिया जाता है। जबकि भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार क्लाउडबर्स्ट की परिभाषा है – 100 मिलीमीटर प्रति घंटा या उससे अधिक की वर्षा। कई बार घटनाएँ इस औपचारिक सीमा से थोड़ी नीचे रहती हैं, या फिर वे दरअसल हिमनदी-झील फटने (Glacial Lake Outburst) अथवा स्थानीय संवहनी वर्षा (Convective burst) का नतीजा होती हैं।
असल सवाल: बारिश इतनी विनाशकारी क्यों?
कई मौकों पर तो मापने वाले यंत्र ही वर्षा की चरम तीव्रता दर्ज नहीं कर पाते। लेकिन सार्वजनिक सुरक्षा के लिहाज़ से यह तकनीकी बहस ज़्यादा मायने नहीं रखती। परिभाषा पर विवाद जोखिम को कम नहीं करते। असली सवाल यह है कि बारिश का असर कैसे इतना विनाशकारी हो गया। इसलिए ज़रूरी है कि रिपोर्टिंग में जहाँ संभव हो वहाँ मिलीमीटर-प्रति-घंटा और प्रभावित क्षेत्र का सटीक विवरण दिया जाए। साथ ही यह भी बताया जाए कि कैसे पहले से गीली हो चुकी कैचमेंट मिट्टी, ढलानों की कटाई, बंद नाले, और गलत जगह पर बनी संरचनाएँ, साधारण वर्षा को भी तबाही में बदल देती हैं।
अब करना क्या चाहिए
1. अपने ही मानकों का पालन करें। 2018 की सड़क चौड़ाई गाइडलाइन (5.5 मीटर) को लागू करें और जहाँ चौड़ीकरण ज़रूरी हो, वहाँ ढलान स्थिरीकरण किया जाए, जैसे इंजीनियरिंग-आधारित रिटेनिंग वॉल, जल निकासी गैलरी, बायो-इंजीनियरिंग और निरंतर निगरानी।
2. परियोजना नहीं, घाटी के स्तर पर योजना बनाइए। EIAs में एक साथ कई परियोजनाओं के असर और क्लाउडबर्स्ट हाइड्रोग्राफ का आकलन ज़रूरी हो।
3. नो-बिल्ड ज़ोन तय करें। पुराने बाढ़-मार्गों और मलबा-प्रवाह क्षेत्रों पर निर्माण पूरी तरह रोकें।
4. स्थानीय स्तर पर चेतावनी प्रणाली। रडार और ऑटोमैटिक रेन गेज से शॉर्ट-फ्यूज़ अलर्ट निकलें और पंचायतों को सीधा अधिकार मिले कि वे सायरन बजाकर लोगों को निकाल सकें।
5. NGT की सख़्ती को नज़रअंदाज़ न करें। दून वैली का मामला इस बात की कसौटी है कि क्या हमारे पर्यावरण नियम काग़ज़ी रहेंगे या ज़मीनी।
पहाड़ों की चेतावनी: क्या हम सुन रहे हैं?
बादल फटना प्राकृतिक है; आपदा मानव की बनाई हुई है। पश्चिमी हिमालय में बारिश की तीव्र घटनाएँ और बढ़ेंगी। लेकिन क्या ये गाँवों को तबाह करेंगी या नहीं, ये तय करता है ispar ki हम क्या बनाते हैं, कैसे बनाते हैं, और क्या सच में सुरक्षा को प्राथमिकता देते हैं। पहाड़ हमें रुकने को कह रहे हैं। सवाल है – क्या हम सुन रहे हैं, अगला गाँव ग़ायब होने से पहले?