मैं वही गरीब हूं, जिसकी मजबूरियां हजार हैं, और आवाज़ अब भी दबी रह जाती है। मैं वही हूं, जिसकी भूख को आंकड़ों में, नीतियों में और बजट भाषणों में पिरोकर हर साल बड़ी-बड़ी घोषणाएं होती हैं। सरकारें आती हैं, लाखों करोड़ के विकास के सपने सजा जाती हैं…लेकिन मेरे घर की रसोई अब भी ठंडी है।
मुझे याद है कितनी ही रातें मैं खुले आसमान के नीचे आंखों में उज्ज्वल भविष्य का सपना लिए गुजारता हूं, लेकिन नींद टूटती है, तो फटी चादर, खाली पेट और टूटी छत का सच सामने खड़ा रहता है। कभी व्यवस्था मेरे सिर पर पुल गिरा देती है, तो कभी सरकारी स्कूल की छत! हर बार मेरा परिवार आस लगाता है कि शायद इस बार हमारी फरियाद सुनी जाएगी, शायद इस बार योजनाओं की रकम घर तक पहुंचेगी लेकिन हर बार उम्मीदें उन्हीं फाइलों में दबकर दम तोड़ देती हैं, जहां ‘गरीब कल्याण’ सिर्फ एक आंकड़ा है।
मुल्क में हर साल 5 लाख करोड़ रुपए खाद्य सुरक्षा, 60 हजार करोड़ मनरेगा, और न जाने कितनी योजनाओं में खर्च होते हैं। कागजों में मेरे लिए भरपूर इंतजाम दिखता है, लेकिन रोटी का टुकड़ा अब भी छिन जाता है किसी साहब के दस्तखत या बाबू की फाइल के नीचे। आवाज़ उठाई, मदद की गुहार लगाई फिर भी मेरी दुनिया में सन्नाटा है।
मेरे बेटे ने ख्वाब देखा था कलक्टर बनेगा, डॉक्टर बनेगा उस दिन उसे स्कूल भेजा था, भरोसा था वो पढ़-लिखकर मेरी तकदीर बदल देगा। लेकिन व्यवस्था की लापरवाही की छत उसके सिर पर गिर गई। मासूम की लहूलुहान देह कंधे पर डाल अस्पताल भागा—लेकिन शिक्षकों समेत सभी जिम्मेदारों ने हमें हमारे हाल पर छोड़ दिया।
संवेदनाओं के भाषण मिले, लेकिन इन्साफ नहीं। कई बार स्कूल की दीवार खिसकी, शिकायत की लेकिन ना स्कूल ने सुनी, ना अफसरों ने, ना गांव के सरपंच ने। कागजों में करोड़ों उसी स्कूल के नाम चले, लेकिन मेरे बच्चे की हिफाजत के लिए एक मजबूत छत तक नसीब न हो पाई।
आज मेरा बच्चा चला गया मैं दो दिन खबरों में रहूंगा, लोग सहानुभूति जता जाएंगे। फिर वही पुराना संघर्ष, वही भूख, वही बेबसी, फिर नए आंकड़ों में छुपी मेरी तकलीफ। मैं सिर्फ इतना चाहता था कि मेरे बच्चों को बराबरी का मौका मिले, वे भी डॉक्टर, इंजीनियर या अफसर बनें…लेकिन मेरी हसरतें अपनी उम्र से पहले ही दम तोड़ रही हैं। सिस्टम झूठी तसल्ली दे जाएगा, लेकिन मुझे अपनी उम्मीदें, अपने जख्म और अपने गरीब होने का सच खुद ही ढोना है… हमेशा की तरह।